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सुभाषितमञ्जरो
३३ कि फिर वहा नही आये, वे गुरु जयवन्त हों ॥७॥
___ गुरु ही ससार समुद्र के तारक हैं भववाधि तितीन्ति सद्गुरुभ्यो विनापि ये। जिजीविपन्ति ते मूढा नन्वायुःकर्मवर्जिताः ॥७६॥ अर्थ - जो सद्गुरुप्रो के बिना भी ससार सागर को तैरने की इच्छा करते है वे मूर्ख आयु कर्म से रहित होकर जीवित रहने की इच्छा करते हैं ॥७६।।
गुरुत्रों के वचन सदा ग्राह्य हैं गुरूणां गुरुवुद्धीनां निःस्पृहाणामनेनसाम् । विचारचतुरेवाक्यं सदा संगृहयते बुधैः ॥७७॥ अर्थ - विशाल बुद्धि के धारक, निस्पृह एवं निष्पाप गुरुयो के वचन विचार निपुण विद्वानो के द्वारा सदा संग्रहीत किये जाते हैं ।।७७॥ गुरु ही मोक्ष मार्ग के प्राप्त कराने वाले हैं
वसन्ततिलका भ्रांतिप्रदेषु यहुवमसु जन्मकक्ष पन्थानमेकममृतस्य परं नयन्ति ।