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सुभाषितमञ्जरो
२५ साधु सगति फल साधुसङ्गमनासाद्य यो मुस्तेरालयं व्रजेत् । स चान्धः प्रस्वजन्मार्गे कथं मेहं समारं ।।५८॥ अर्थ- जो पुरुष साधु सगति को प्राप्त किये बिना मोक्ष को प्राप्त होना चाहता है वह अन्धा मार्ग मे हो लडखडा कर रह जाता है मेरु पर्वत पर कैसे चढ सकता है ? 1॥५८।। अन्योक्ति-आम और शर्करा का सवाद
शार्दूल विक्रीडितम् गर्व मा कुरु शर्करे तव गुणान् जानन्ति राज्ञां गृहे ".. ये दीना धनवर्जिताश्च कृपणाः स्वप्नेऽपि पश्यन्ति नो। अाम्रोऽहं मधुमकोमलकलैस्तृप्ता हि सर्वे जना रे रण्ड़े तब को गुणो मम फलैः सार्धं न किञ्चित्फलम् अर्थ - री शक्कर ! तू गर्व मत कर, तेरे गुणो को लोग राजाओ के घर मे ही जानते है परन्तु जो, दीन, निर्धन और कृपण पुरुष हैं वे तुझे स्वप्न मे भी नही देखते हैं । मैं आम हूँ, मेरे मीठे एव कोमल फलो से सब लोग संतुष्ट रहते हैं। री राड तेरा ऐसा कौनसा गुण है जो मेरे फलो की समानता कर सके । मेरे फल सबन, निर्धन-सभी के काम आते हैं। भावार्थ-साधु पुरुष वही है जो मब के काम आता है ।।५।।