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सुभापितमञ्जरी २६
जैन यातियो का प्रभाव स्पृष्टा यत्र मही तदचिकमनस्तत्रैति सत्तीर्थतांतेभ्यस्तेऽपि सुराः कृताञ्जलिपुटा नित्यं नमस्कुर्वते । तन्नाम स्मृतिमात्रतोऽपि जनता निष्कल्मपा जापते ये जेना यतयश्चिदात्मनिरता ध्यानं समातन्वते ॥६०|| अर्थ- चैतन्य स्वरूप प्रात्मा मे लीन रहने वाले जैन यति जहा ध्यान करते है वहा उनके चरण कमलो से स्पृष्य पृथ्वी समीचीन तीर्थता को प्राप्त होती है, ऐसी भूमि को देव लोग भी हाथ जोड कर निरन्तर नमस्कार करते है और उनके नाम के स्मरण मात्र से जन समूह निष्पाप हो जाता है ।।६।।
मुनिपद में पाये जाने वाले गुण
स्रग्धराछन्द नो दुष्कर्मप्रवृत्तिर्न कुयुवतिसुतस्वामिदुर्मास्यदुखं । राजादौ न प्रणामोऽशनवसनधनस्थानचिन्ता च नैव। ज्ञानाप्तिर्लोकपूजा प्रशमसुखरतिः प्रेत्य मोक्षायवाप्तिः श्रामण्येऽमी गुणाः स्युस्तदिह सुमतयस्तत्र यत्नं कुरुध्वम् अर्था:- मुनि पंद मे न खोटे कार्यों मे प्रवृति होती है और न दुष्ट स्त्री न दुष्ट पुत्र और न दुष्ट स्वामी के कुवंचनो का