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सुभाषितमञ्जरो धर्महीन ननुष्य जल्दी नष्ट होता है छिन्नमलो यथा वृक्षो गतशीर्षों यथा भट । धर्महीनो नरस्तद्वत्कियत्कालं च तिष्ठति ॥४७॥ अर्था.- छिन्न मूल वृक्ष के समान और शिर रहित योद्धा के समान धर्म हीन मनुष्य कितने समय तक स्थित रह सकता है ।।४७।।
धर्म का लौकिक फल धर्मेण सुभगा नार्यों रूपलावण्यसंयुताः । कामदेवनिभाः पुत्रा कुटुम्बसुखसाधनम् ॥४८|| अर्था- धर्म से सौभाग्य शालिनी एव रूप और सौन्दर्य से सहित स्त्रिया, कामदेव के समान पुत्र और सुख का साधन कुटुम्ब प्राप्त होता है ।।४८| धर्मो कामदुधाधेनु धर्मश्चिन्तामणिमहान् । धर्म कल्पतरुः स्थेयान्धर्मो हि निधिरक्षय. ॥४६॥ अर्थ - धर्म मनोरथो को पूर्ण करने वाली कामधेनु है । बड़ाभारी चिन्तमणि रत्न है स्थिर रहने वाला कल्पवृक्ष है और अक्षय निधि है ।।४।।