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सुभाषितमञ्जरी १७ जिनधर्मस्य भव्यानां संसारोम्छेदकारिणः ।।
त्रैलोक्याधिकमूल्यस्य केन मूल्यं विधीयते ॥३६॥ अर्श - जो भव्य जोवो के ससार का उच्छेद करने वाला है तथा जिसका मूल्य तीन लोक से अधिक है उस जिनधर्म । का मूल्य किससे किया जा सकता है ?
धर्मात्माओ का धर्म भक्तिः श्रीवीतरागे भगवति करूणा प्राणिवणे समग्रे । दान दीने च पात्रे श्रवणमनुदिनं श्रद्धया सच्छुतीनाम् । पापे हेयत्वबुद्धिर्भवभयमथने मुक्तिमार्गेऽनुरागः सङ्गे निःसङ्गचित्त विषयविमुखता धर्मिणामेव धर्मः ।३७॥ अर्थ- श्री वीतराग भगवान् मे भक्ति होना, समस्त प्राणियो के समूह पर दया होना, दोन पात्र के लिये दान देना, प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक समीचीन शास्त्रो का सुनना, पाप मे हेयत्व बुद्धि का होना, ससार के भय को नष्ट करने वाले मोक्ष मार्ग से अनुराग करना, परिग्रह मे विरक्त चित्त का होना और विपयो से विरक्त रहना यह धर्मात्माओ का धर्म है ।३७)
धर्म ही सिद्धि मुख को देने वाला है
शिखरिणीच्छन्द । चिरं बद्धो जीरः सुकृतदुरिताभ्यां च वपुषा '