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जिनेन्द्र स्तुति की थी तथा जिनकी वाणी रुपी गङ्गा पहले से हो देव पोर मनुष्यो के द्वारा मान्य थी वे कर्म विजयी भगवान् वृषभ जिनेन्द्र सब के लिये शान्ति प्रदान करें ॥५॥
शार्दूलविक्रीडितम् आयातस्त्रिजगत्पते तव पदद्वन्द्वाम्बुजाराधनावाच्छाप्रोरितमानसः स्तुतिशतैः रतुत्वा भवन्तं महत् । पुण्यं चाभिन पवित्रतरको जातोऽस्मि संप्रत्यहं
गच्छामि प्रततानस्य भवतो भूयाउनदर्शनम् ॥६॥ अर्थ हे त्रिलोकीनाथ ! मैं आपके चरण कमल युगल की पारा धना सम्बन्धी इच्छा से प्रेरित चित्त होता हुआ पाया था और सैकडो स्तुतियो से आपकी स्तुति कर मैंने बहुत भारी नवीन पुण्य प्राप्त किया है उस पुण्य से अत्यन्त पवित्र होता हुआ अब मैं जाता हूं, अतिशय विस्तृत पूजा से युक्त प्रापका फिरभी दर्शन प्राप्त हो ॥६॥ यरय ज्ञानसुधाम्बुधौ जगदिदं विश्वं हि भस्त्रायते ।
कर्माण्यष्ट निहत्य येन सुगुणांचाष्टौ समासादिताः । पूजाई जिनदेव मच्युत मजं बुद्ध मुनि शङ्करं ध्यायेऽहं मनसा रतवीमि वचसा मू| नमाम्यादरात् । अर्थ-जिनके ज्ञान रुपी अमृत के समुद्र मे यह समस्त ससार