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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका धरसेनाचार्य ने इन्हें सिखाया तो उत्तमता से किंतु ज्यों ही आषाढ शुक्ला एकादशी को अध्ययन पूरा हुआ त्यों ही वर्षाकाल के बहुत समीप होते हुए भी उन्हें उसी दिन अपने पास से विदा कर दिया । दोनों शिष्यों ने गुरु की बात अनुलंघनीय मानकर उसका पालन किया और वहां से चलकर अंकुलेश्वर में चातुर्मास किया । धरसेनाचार्य ने इन्हें वहां तत्क्षण क्यों रवाना कर दिया यह प्रस्तुत ग्रंथ में नहीं बतलाया गया है। किंतु इद्रनन्दिकृत श्रुतावतार तथा विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतार में लिखा है कि धरसेनाचार्य को ज्ञात हुआ कि उनकी मृत्यु निकट है, अतएव इन्हें उस कारण क्लेश न हो इससे उन्होंने उन मुनियों को तत्काल अपने पास से विदा कर दिया । संभव है उनके वहां रहने से आचार्य के ध्यान और तप में विध्न होता, विशेषत: जब कि वे श्रुतज्ञान का रक्षासंबन्धी अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे । वे संभवत: यह भी चाहते होंगे कि उनके वे शिष्य वहां से जल्दी निकल कर उस श्रुतज्ञान का प्रचार करें । जो भी हो, धरसेनाचार्य की हमें फिर कोई छटा देखने को नहीं मिलती, वे सदा के लिये हमारी आंखों से ओझल हो गये। आचार्य अर्हद्वलि और माघनन्दि -
धवलाकार ने धरसेनाचार्य के गुरु का नाम नहीं दिया । इन्द्रनन्दि के श्रुतावतारमें लोहार्य तक की गुरुपरम्परा के पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्यों का उल्लेख किया गया है। वे सब अंगों और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे । इनके पश्चात् अर्हद्वलिका उल्लेख आया है । अर्हद्वलि बड़े भारी संघनायक थे । वे पूर्वदेश में पुंड्रवर्धनपुर के कहे गये हैं। उन्होंने पंचवर्षीय युग-प्रतिक्रमण के समय बड़ा भारी यतिसम्मेलन किया जिसमें सौ योजन के यति एकत्र हुए । उनकी भावनाओं पर से उन्होंने जान लिया कि अब पक्षपात का जमाना आ गया है । अत: उन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पंचस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों से भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये जिसमें एकत्व और अपनत्व की भावना से खूब धर्म-वात्सल्य और धर्म-प्रभावना बढ़े।
श्रुतावतार के अनुसार अर्हद्वलि केअनन्तर माघनन्दि हुए जो मुनियों में श्रेष्ठ थे ।
१ इन्द्रनन्दि के अनुसार धरसेनाचार्य ने उन्हें दूसरे दिन बिदा किया। २ इन्द्रनन्दि ने इस पत्तन का नाम कुरीश्वर दिया है। वहां वे नौ दिन की यात्रा करके पहुँचे। ३ स्वासन्नमृतिं ज्ञात्वा मा भूत्संक्लेशमेतयोतस्मिन् । इति गुरुणा संचिन्त्य द्वितियदिवसे ततस्तेन। इन्द्रनन्दि, श्रुतावतार आत्मनो निकटमरणं ज्ञात्वा धरसेनस्तयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्वा तन्मुनिविसर्जन करिष्यति।
विबुधश्रीधर, श्रुतावतार. मा. दि. जै. ग्रं. २१, पु. ३१७.