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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
यद्यपि शौरसेनी के नियमानुसार कथं आदि में थ के स्थान पर ध ही रक्खा है, किंतु जहां ध करने से किसी अन्य शब्द से भ्रम होने की संभावना हुई वहां थ ही रहने दिया। उदाहरणार्थ- किसी किसी प्रति में 'गंथो' के स्थान पर 'गंधो' भी है किंतु हमने 'गंथो' ही रक्खा है।
(ई) हृस्व और दीर्घ स्वरों में बहुत व्यत्यय पाया जाता है, विशेषत: प्राकृत रूपों में । इसका कारण यही जान पड़ता है कि प्राचीन कनाड़ी लिपि में हस्व और दीर्घ का कोई भेद ही नहीं किया जाता। अत: संशोधन में हृस्वत्व और दीर्घत्व व्याकरण के नियमानुसार रक्खा गया है।
__(उ) प्राचीन कनाड़ी ग्रंथों में बहुधा आदि ल के स्थान पर अ लिखा मिलता है जैसा कि प्रो. उपाध्येने परमात्मप्रकाश की भूमिका में (पृ.८३ पर) कहा है । हमें भी पृ.३२६ की अवतरण गाथा नं. १६९ में 'अहई' के स्थान पर 'लहइ' करना पड़ा।
३. प्रतियों में न और ण के द्वित्व को छोड़कर शेष पंचमाक्षरों में हलंत रूप नहीं पाये जाते । किंतु यहां संशोधित संस्कृत में पंचमाक्षर यथास्थान रक्खे गये हैं।
४. प और य में प्राचीन कनाड़ी तथा वर्तमान नागरी लिपि में बहुत भ्रम पाया जाता है । यही बात हमारी प्रतियों में भी पाई गई । अत: संशोधन वे दोनों यथास्थान रक्खे गये हैं।
____५. प्रतियों में ब और व का भेद नहीं दिखाई देता, सर्वत्र व ही दिखाई देता है। अत: संशोधन में दोनों अक्षर यथास्थान रक्खे गये हैं। प्राकृत में व या ब संस्कृत के वर्णानुसार रक्खा गया है।
६. 'अरिहंतः' संस्कृत में अकारांत के रूप से प्रतियों में पाया जाता है । हमने उसके स्थान पर संस्कृत नियमानुसार अरिहंता ही रक्खा है । (देखो, भाषा व व्याकरण का प्रकरण)
७. ग्रंथ में संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का खूब उपयोग हुआ है, तथा प्रतियों की नकल करने वाले संस्कृत के ही जानकार रहे हैं । अत:एव बहुत स्थानों पर प्राकृत के बीच संस्कृत के और संस्कृत के बीच प्राकृत के रूप आ गये हैं। ऐसे स्थानों पर शुद्ध करके उनके प्राकृत और संस्कृत रूप ही दिये गये हैं। जैसे, इदि-इति, वणं-वनं, गदिगति, आदि।