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पखंडागम की शास्त्रीय भूमिका से पूर्व रखा जाता है । अतएव लिपिकार द्वित्वको अनुस्वार और अनुस्वार को द्वित्व भी पढ़ सकता है। उदाहरणार्थ, प्रो. पाठक ने अपने एक लेख में त्रिलोकसार की कनाड़ी ताड़पात्र प्रति पर से कुछ नागरी में गाथाएं उदधृत की है जिनमें से एक यहां देते हैं -
सो उ०म०गाहिमुहो चउ०मुहो ‘सदरि-वास-परमाऊ ।
चालीस र०जओ जिदभूमि पु०छइ स-मंति-गणं ॥ इसका शुद्धरूप है -
सो उम्मग्गाहिमुहो चउम्मुहो सदरि-वास-परमाऊ। चालीस-रजओ जिदभूमि पुच्छइ स-मंति-गणं ॥ ऐसे भ्रम की संभावना ध्यान में रखकर निम्न प्रकार के पाठ सुधार लिये गये हैं - (१) अनुस्वार के स्थान पर अगले वर्ण का द्वित्व -
अंगे गिज्झा-अंगग्गिज्झा (पृ.६), लक्खणं खइणो-लक्खणक्खइणो (पृ.१५)
संबंध-संबद्ध (पृ.२५,२९२,) वंस-वस्स (पृ.११०) आदि । (२) द्वित्व के स्थान पर अनुस्वार -
भग्ग-भंग (पृ.४९) अक्कुलेसर-अंकुलेसर (पृ.७१) कक्खा-कंखा (पृ.७३) समिइवइस्सया दंतं - समिइवई सया दंतं (पृ.७) सव्वेयणी-संवेयणी (पृ.१०४) ओरालिय त्ति ओरालियं ति (पृ. २९१ ) पावग्गालिय-पावं गालिय (पृ. ४८) पडिमव्वा-पडिमं वा (पृ.५८) इत्यादि।
(आ) कनाड़ी में द और ध प्राय: एक से ही लिखे जाते हैं जिससे एक दूसरे में भ्रम हो सकता है।
द-ध, दरिद-धरिद (पृ.२९) ध-द, दृविध-दृविद (पृ.२०) हरधणु हरदणु (पृ.२७३) इत्यादि।
(इ) कनाड़ी में थ और ध में अन्दर केवल वर्ण के मध्य में एक बिंदु के रहने न रहने का है, अतएव इनके लिखने पढ़ने में भ्रान्ति हो सकती है । अत: कर्थ के स्थान पर कधं
और इसको तथा पूर्वोक्त अनुस्वार द्वित्व-विभ्रम को ध्यान में रखकर संबंधोवा के स्थान पर . सव्वत्थोवा कर दिये गये हैं।
1. Bhandarkar commemoration Vol., 1917, P. 221