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की इसी सुबोधिका का आधार लेकर प्रवचन करते हैं । अत्यन्त ही सरल व सुबोध होने से बहुत लोकप्रिय बनी है ।
यह टीका
(२) लोकप्रकाश - इस ग्रन्थ में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है ।
द्रव्यलोकप्रकाश में ग्यारह सर्ग हैं । षद्रव्य का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है।
इसमें वीतराग प्ररूपित
● क्षेत्रलोकप्रकाश में १६ सगं हैं । इसमें चौदह राजलोक के स्वरूप का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है ।
काललोकप्रकाश में समय से लेकर घड़ी, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, कालचक्र, पल्योपम, सागरोपम आदि का सविस्तृत वर्णन किया गया है ।
भावलोकप्रकाश में प्रोपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, प्रौदयिक, पारिणामिक, सांनिपातिक श्रादि छह भावों का सुन्दर शैली में वर्णन किया गया है ।
सचमुच, जैनदर्शन के द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग धर्मकथानुयोग को बहुत ही सुन्दर ढंग से समझाया गया है ।
इस विशालकाय ग्रन्थ में प्रागमादि अन्य ७०० ग्रन्थों के १०२५ साक्षी पाठ दिए गए हैं । इससे उपाध्यायजी म. के श्रागमज्ञान की गहराई का स्पष्ट ख्याल आ जाता है ।
(३) हैमलघुप्रक्रिया - वि. सं. १७१० में हैमलघुप्रक्रिया ग्रन्थ की रचना हुई है। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी विरचित 'सिद्धहेमशब्दानुशासनम् ' ग्रन्थ के सूत्रानुसार उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना
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