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संख्या १ ]
बाबू शिवप्रसाद गुप्त
"भाई", गुप्त जी बेसबरी से बोले – “मेरा नाम है यह प्रपंच इनको जीवित रखने के लिए किया शिवप्रसाद गुप्त, मेरे बाप का नाम है नरोत्तमदास और उनके बाप का नाम था सीतलप्रसाद । अब आप समझे " |
लेकिन टेलीफ़ोन बन्द हो गया। हम
लोग भी शान्त हो गये ।
गुप्त जी ने रिसीवर को
लटका दिया और यंत्र
को बक्स पर रख दिया ।
" इडियट्स"
(मूर्ख) ! वे बोले । क्षण भर में ही
पेशानी की शिकन जाती रही और फिर वे
हम लोगों से पूर्ववत् प्रेम से बातें करने लगे। बाबू शिवप्रसाद गुप्त का जन्म काशी में
आषाढ़ कृष्ण अष्टमी संवत् १६४० को हुआ था। इनके जन्म के
पहले इनके माता-पिता
शिवना
ला
की कई सन्तानें छीज चुकी थीं । इसलिए इनके जन्म के अवसर पर इनकी माताश्री अपना घर छोड़कर बनारस में चौकाघाट पर शिवलाल जी दुबे के बाग़ीचे में एक फूस की कुटिया में रहा करती थीं। वहीं इनका जन्म हुना था । पैदा होते ही ये नाल काटनेवाली चमारिन के हाथ सात कौड़ी पर बेच दिये गये थे और फिर बहुत धन देकर इनके माता-पिता ने इनको उसी चमारिन से खरीद लिया था । उस समय के हिन्दू-समाज के प्रचलित विचारों के अनुसार
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गया था।
इनके पिता का देहान्त संवत् १६४८ के चैत में जब
ये केवल ८ वर्ष के ही थे, हो गया था। इसके बाद ये लोग बनारस चले आये थे और अपने चचा के कुटुम्ब के साथ रहने लगे थे । बाल्यावस्था में इन्होंने फ़ारसी की शिक्षा पाई, किन्तु कुछ दिनों के बाद इन्होंने अँगरेज़ी भी पढ़नी शुरू कर दी । संवत् १६६१ में इन्होंने
बनारस के जयनारायण
स्कूल से मेट्रीक्यूलेशन पास किया और दूसरे वर्ष हिन्दू-कालेज में नाम लिखाया । किन्तु इन्होंने एफ०ए० प्रयाग से पास किया। और बी० ए० पास न कर सके थे कि स्वास्थ्य के कारण तथा दूसरी वजहों से इन्हें पढ़ना छोड़ देना पड़ा । इन्ट्रेंस पास करने के बाद से इनका मन अनेक सामाजिक और धार्मिक प्रश्नों के हल करने में लग गया था । बुद्धि और हृदय के विकास में कभी ये इस्लामधर्म की ओर, कभी ईसाई धर्म की ओर झुके, कभी शालग्राम, हनूमान जी आदि की उपासना करते, कभी वल्लभमत मानते और कभी सूर्य की पूजा करते । किन्तु अन्त में आर्य समाज ने इन्हें कुछ दिनों के लिए शान्ति दी ।
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नरेन्द्रल
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[बाबू शिवप्रसाद गुप्त, श्री नरेन्द्रदेव शास्त्री और श्री सम्पूर्णानन्द जी ]