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वचन-साहित्य-परिचय सामने अपना प्रतिबिंब देखने आती है, शब्दोंका सुन्दरं वसन पहनकर आती है, उपमा, उत्प्रेक्षा, आदि अलंकार पहनकर आती है, कभी-कभी अपनी सरल सुलभ सहज गद्यमय चालसे आती है तो कभी-कभी पद्यमय लालित्यपूर्ण, ताल-- बद्ध नृत्य करती आती है । चित्तमें अपना प्रतिबिंब देखकर वह गिरा, वारणी,.. परम कल्याणी, जानपथगामिनी, प्रसन्न होकर मानवीय हृदय-सागरकी गहराईमें पड़े भाव भंडारको लुटाती है, सुरभित अनुभव-सुमनोंको उछालती है,. और मानवको महामानव बनाने के लिए, नरको नारायण बनानेके लिए, प्रत्यक्ष वनकर, स्पष्ट बनकर, गुह्यात् गुह्यतम ज्ञान-विज्ञानको करतलामलककी भांति खोलकर मानवके सम्मुख रखती है। वाणीके इस पावन रूपको विद्वान् लोग साहित्य कहते हैं, वाङ्मय कहते हैं। वह वाणीकी लीला होती है। मां सरस्वतीकी वीणाकी मधुर झंकार होती है। मांके इस वीणा-वादनसे मनुष्य अपने जीवनका अंतर-बाह्य दर्शन करता है । जीवन-कमल खिलकर अपना रहस्य" खोल देता है । तभी विद्वान् लोग कहते हैं, साहित्य वही है जो जीवनका अर्थ" करता है।
किसी भी साहित्यका विचार करते समय यह देखना आवश्यक है कि सहित्यिकने किस उद्देश्यसे यह सव लिखा है ? किस ढंगसे कहा है ? साहित्यकारने अपने अनुभव किस प्रकार, कितनी सुंदरतासे, सुलभ और सरल शैलीमें वाचक के सम्मुख प्रस्तुत किए है । और वह इसमें कहाँ तक सफल हुआ है ! वचन साहित्यकी ओर देखते समय भी इसी दृष्टिसे देखना है, किंतु इससे पहले एक वात व्यानमें रखना आवश्यक है कि वचनकार साहित्यिक. नहीं थे। वे साहित्यकला, अथवा साहित्य-शास्त्रके विद्वान् नहीं थे। साहित्य-निर्माण करना उनके जीवनका उद्देश्य नहीं था । वे सत्यका अनुसंधान करने वाले थे। सत्यके साधक थे । जो कुछ पाया वह अपने संगी साथियोंको देते-देते, सत्य के अनुसंधानकार्य: में जो अनुभव आते थे उन्हें कहते-कहते, जीवनके अंतिम सत्यके अनुसंधान में आगे बढ़नेवाले वीर थे। उस ओर जानेवालोंका पथ-प्रदर्शन करनेवाले पंथप्रदर्शक थे । सत्यार्थी थे। सत्याग्रही थे। उनके जीवनमें अपने उद्देश्य-प्राप्तिके विषयमें अपने प्रियतमको खोजनेवाली विरहिणीकी व्याकुलता थी, अपने नये खिलौनेसे खेलनेवाले वालककी तन्मयता थी, भूमिके अंदर छिपे धनको खोदने.. वाले लोभी का लालच था। इन्हीं भावोंसे उन्होंने मानवीय जीवनके प्रात्यंतिक साध्यकी खोज की। इस खोजमें जो अनुभव हुए वे अपने साथियोंसे कहे। जिन बातोंसे वे प्रसन्न हुए उन बातोंको उन्होंने अपने अन्य मानव-बंधुत्रोंसे कहा । उन्होंने अन्य दर्शनिकोंकी भांति कभी खंडन-मंडन करके 'इति सिद्धं',. ऐसी घोषणा नहीं की। उन्होंने इतना ही किया कि जिस रास्ते पर वह चले