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प्रतिक्रमण के पांच भेद हैं
रात्रिक, देवसिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण । परमाणु-समुदाय और पारमाणविक जगत्
यह दृश्य जगत्-पौदगलिक जगत् परमाणु संघटित है। परमाणुओं से स्कंध बनते हैं और स्कंधों से स्थूल पदार्थ । पुद्गल में संघातक और विघातक-ये दोनों शक्तियां हैं। पुद्गल शब्द में भी 'पूरण और गलन' इन दोनों का मेल है । परमाणु के मेल से स्कंध बनता है और एक स्कंध के टूटने से अनेक स्कंध बन जाते हैं। यह गलन ( Fusion ) और मिलन (Fission ) की प्रक्रिया स्वाभाविक भी होती है और प्राणी के प्रयत्न से भी। पुद्गल की अवस्थाएं सादि-सांत होती है, अनादिअनंत नहीं। इसलिए एक पौद्गलिक पदार्थ से दूसरे पौद्गलिक पदार्थ के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। पारे को सोने में बदला जा सकता है । पुद्गल में अगर वियोजक शक्ति नहीं होती तो सब अणुओं का एक पिंड बन जाता और यदि संयोजक शक्ति नहीं होती तो एक-एक अणु अलग रखकर कुछ नहीं कर पाते। प्राणी जगत् के प्रति परमाणु का जितना भी है कार्य है-वह सब परमाणु समुदयजन्य है । अनंत परमाणु स्कंध ही प्राणी जगत् के लिए उपयोगी है।
परमाणु की निष्कंप दशा औत्सगिक ( स्वाभाविक ) है। इसलिए उसका उत्कृष्ट असंख्यातकाल है। सकंप दशा आपवादिक ( अस्वाभाविक-कभी-कभी होने वाली ) है। इसलिए वह उत्कृष्ट से भी आवलिका के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहती है।
जब परमाणु, परमाणु अवस्था में (स्कंघ से पृथक् ) रहता है, तब स्वस्थान कहलाता है। और जब स्कंध अवस्था में रहता है तब परस्थान कहलाता है। एक परमाणु एक समय तक चलन क्रिया को बंद रहकर फिर चलता है, तब स्वस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य एक समय का होता है और उत्कृष्ट से वही परमाणु असंख्यातकाल तक किसी स्थान स्थिर रहकर फिर चलता है तब अन्तर असंख्यातकाल का होता है। जब परमाणु द्विप्रदेशादि स्कंध के अन्तर्गत होता है और जघन्य से एक समय चलन क्रिया से निवृत्त होकर फिर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य एक समय का होता है। परन्तु जब वह परमाणु असंख्यातकाल तक द्विप्रदेशादिक स्कंध रूप में रहकर पुन: उस स्कंध में पृथक् होकर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर असंख्यातकाल होता है ।
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