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प्रासाद मण्डन के चूसरे अध्याय में जगती, तोरण पोर जसा के स्थापन में दिशा के नियम का विशेष उल्लेख है, प्रामाद के अधिष्ठान की संशा जगती है । जैसे राजा के लिए सिंहासन से ही प्रासाय के लिए जगती को शोमा कही गई है। प्रासाद के अनुरूप पांच प्रकार की जगती होती है-पतुर (धोरस), मायन (सम्ब चौरस), मटार (अट्टस या अठकोमी), वृत्त (गोल) और वृत्तायत (लम्ब गोल, जिसका एक शिरा गोल और दूसरा पायत होता है, इसे ही दधन या बेंसर कहते हैं)। ज्येष्ठ मध्य और कनीयसी तीन प्रकार की अगली कहीं गई हैं । जगती की कंबाई और सम्बाई की नाप प्रासाद के अनुसार स्थति को निश्चित करनी पाहिए, जिमका उल्लेख प्रत्यकार ने किया है। प्रासाद की चौड़ाई में नियुनी भौगुनी या पाचधुनी तक चौड़ी
और म०प मे सवाई नयीढ़ी या दूनी लम्त्री तक भगती का विक्षन है । जगशी के ऊपर ही प्रासाद का निर्माण किया जाता है अतएव यदि प्रासाद में एक, दो या तीन प्रभणी या प्रदक्षिरमापय रखने हों तो उनके लिए भी जगती के ऊपर ही गुआयश रखी जाती है। अगती के निर्धारण में पार, बारह कीस, वाइस, या छत्तीस कोरण युक्त कालमानों का निर्माण सूत्रधार मण्डन के समय तक होने लगा था । जगती कितनी ऊंची हो और उममें कितने प्रकार के गलते-गोले बनाए जाय इसके विषय में मण्डन का कथन है कि जगती की ऊंचाई के प्रवाइस एद या भाग करके उसमें तीन पद का जागृथकुभ या आइमा, दो पद की करणी, जीन पद का दामा ओ पथपत्र मे युक्त हो, दो पद का खुरक, उसके ऊपर मात भाग का कुभ, फिर तीन पद का कलश, एक भाग का लत्रक तीन भाग को घोली या के.बाल.भार भागा पापण्ठया अंतरान होना चाहिए । जगती के चारों ओर प्राकार का बीवार और धार द्वार-मण्डप, अल निकालने के लिए मकराकति प्रणाल, सोपान पोर तोरण मी इच्छानुसार बनाए जा सकते हैं। माइप के सामने जो प्रतोली या प्रवेशद्वार ही उसके नागे सोपान में शुपिंडकाकृति हथिनी बनाई जाती है । तोरण की चौड़ाई गर्भ गृह के पदों की नाप के बराबर और ऊंचाई मन्दिर के भारपट्टों की ऊंचाई के अनुसार रक्खी जाती है। तोरणा मन्दिर का विशेष प्रेश माना जाता था और उसे भी जगती पोर उसके ऊपर पीय देकर ऊंचा बनाया जाता था । तोरण की रचना में नाना प्रकार के रूप या मूर्तियों की शोभा बनाई जाती थी । तोरए कई प्रकार के होते थे । मे घटाला तोरण, तलक तोरण, हिण्डोला तोरण पारि । प्रासाद के सामने वाहन के लिए चौकी ( चतुरिष्कका ) रखी जाती थी।
देव मन्दिर में वाहन के निर्माण के भी विशेष नियम थे । वाहन की ऊंचाई गमारे की मूर्ति के गुह्यस्थान, नाभिस्यान या स्तन रेखा तक रखी जा सकती है । शिखर के जिस भाग पर सिंह की मूर्ति बनाई जाती है उमे शुकनासिका कहते है । उस मूत्र में प्रागे पूढमण्डप, गूढमण्डप मे भागे चौकी और उससे भागे नृत्यमण्डप की रचना होती है । मण्डलों की संख्या जितनी भी हो सब का विन्यास गर्भगृह के मध्यवर्ती सूत्र से नियमित होता है। मंदिर के द्वार के पास त्रिशाला या मलिद या बलाएक (द्वार के कार का मंत्रप) मनाया जाता है । पन्द्रहवी गली में मंदिरों का विस्तार बहुत बड़ गया था और उसके एक भाग में रथ यात्रा पाला बड़ा रथ रखने के लिए रस भाला और दूसरे भाग में छात्रों के निवास के लिए मट का निर्माग भी होने लगा था।
तीसरै अध्याय में प्राधार शिला प्राप्ताद पेठ, पीर के ऊपर मंडोबर पोर मन्दिर के द्वार के निर्माण का विस्तृत वर्णन है । प्रासाद के मूल मैं नीष ले मार करने के लिए कंकरीट ( इष्ट का पूर्ण ) की पानी के साथ तुम कुदाई करनी चाहिए । इसके ऊपर खून मोटी और लम्बी घोड़ी प्रासाद धारिणी शिला या पत्थर का फर्श बनाया जाता है । इसे ही श्रुर शिला या घर शिला भी कहते है । इस शिला के अपर जैसा भी प्रामाद बनाना हो उसके अनुरूप सर्व प्रमम जगसी या अधिष्ठान बनाया जाता है जिसका उस्लेख पहले