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इसी उदान धरातल पर शंकराचार्य ने वासुदेव शब्द की इस प्रकार घ्युरपस्ति दी है-- "वराति वासयति अाच्छादयति समिति वा यासुः, बीयति कोडते विजिगीषते व्यवहरति धोतते स्पले गम तीति वा देवः । वासुवचासो देवश्वनि वासुदेषः ।।
(विष्णु सहस्रनाम' शाङ्कर भाष्य, 1 एलोक) इस प्रकार की सरल और तरंगित मनःस्थिति भागवत्तों की विशेषता की जिसके धारा उन्होंने साब धों के समन्वय का राजमार्ग सपनाया । देव के बहुविध नामों के विषय में उनके दृष्टिकोण का सार यह पा
पर्यायबायकैः शब्देस्तरदमाद्यममुसमम् । व्याख्यातं तस्वभाव रेवं मनभावचिन्तः॥
(अायु पुराण, ४:४५) प्रति समस्त सृष्टि का जो एक प्रादि कारण है, जिससे श्रेष्ठ मार कुछ नहीं है, ऐसे उस एक सत्त्व को ही त्वयना अनेक पर्यायवाची शब्दों से कहते हैं । इस मुन्दर दृष्टिकोण के कारण समन्वय और सम्प्रीति के धर्माम्बु मेष भारतीय महाप्रजा के ऊपर उस समय अभिवृष्ट हुए जब देव-प्रासादों के रूप में संस्कृति का नूतन निकाह हुधा । बौद्ध, जैन और हिन्दू मंदिरों में पारस्परिक स्पर्धा मा तनाव की स्थिति न थी किन्तु वे सच एक ही धार्मिक प्रेरणा और स्फूति को मूकप दे रहे थे । गुप्त कालीन भागवती संस्कृति का यह विशाल नेत्र था जिसके द्वारा प्रजाएं अपने-अपने इटदेव का अभिनषित दर्शन प्राप्त कर रही थी ।
मानवी देह के माम देव तत्व के जिस घनिष्ठ संबंध का उल्लेख पर किया गया है उसका दूसरा प्रत्यक्ष फल यह हुआ कि देशालय की कल्पना भी मानुषी देह के अनुसार ही की गई। मानुषी बारीर के जो अंग-प्रत्यंग है उन्ही के अनुसार देव मंदिरों के मुतस्य का विशन निश्चित हुमा । किसी समय 'पुरुषषिधी यक्षः' अर्का 'जैसा पुरुष वैसा ही यज्ञ का स्वरूप माह सिद्धान्त मान्य था । उसी को ग्रहण करते हुए 'पुरुषवियों में प्रासादः,' अर्थात् जैसा पुरुष वैसा ही वैव भदिर का वास्तुगत स्वरूप, यह नया सिद्धान्त मान्य इमा। पाद, खुर, अला, गर्भगृह मंडीवर, स्कंध, शिखर, ग्रीवा, नासिका, मस्तक, शिक्षा मावि साय संबन्धी पाया. बली से मनुष्य और प्रासान की पारस्परिक अनुकृति सूचित होती है ।
देश-प्रासादों के निर्माण की तीसरी विशेषता यह पीकि समाज में कर्मकाण्ड की जो गहरी धार्मिक भावना थी वह देव पूजा का प्री के रूप में बन गई । प्रत्येक मन्दिर उस-स क्षेत्र के लिए पर्म का मूर्त रूप समा गया। भगवान विष्णु प्रभवा अन्य देव का जो विशिफट सौन्दर्य या उसे ही उE-उस स्थान की प्रजाएं अपने अपने देवालयों में मूर्त करने का प्रयत्न करती थीं। दिव्य अमूल सौन्दर्य को मूर्त रूप में प्रत्यक्ष करने का सबल प्रयत्न दिखाई दिया । सुन्दर भूति और मन्दिरों के रूप में ऐसा प्रतिमासिर होता था कि मानो स्वर्ग के सौन्दर्य को विधि के मामय नाक्षात् देख रहे हो । जन समुदाय की सम्मिलित शक्ति और राजक्ति दोनों का सदुपयोग अनेक सृन्दर देव मन्दिरों के निर्माण में किया गया। यह धार्मिक भावना उत्तरोतर बढ़ती गई और एक युगमा प्रापा जब प्रतापी राष्ट्रपट जैसे सम्राटों का वैभव ऐलोरा के के लाश सहा देव मन्दिरो * प्रस्वत समझा आने लगा । एक- मंदिर मानों एक एक सम्राट के सर्वाधिक उत्कर्ष मोर समतिका प्रकट माया । लोक में इस प्रकार की भावना सिखाई तभी मध्यकाल में उस प्रकार के विशाल मंदिर बन सके जिनका वर्णन समरांगणधार एवं अपराजित पुछा से अंगों में पाया जाता है । उन्हीं के पातु शिल्प की परम्परा सूत्रधार मान के अंध में भी पाई जाती है ।