Book Title: Prasad Mandan
Author(s): Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 19
________________ मूर्त है वह त्रिलोकी के रूप में दृश्य और परिमित है । जो पमूर्त है वह अव्यक्त और अपरिमित है । जिसे पुरुष के रूप में वैश्वानर कहा जाता है वही समष्टि के रूप में पूणिवी अंतरिक्ष और ध लोक रूपी त्रिलोकी है। "स यः वैश्वानरः । इमेस लोकाः । इयमेव पृथिवी विश्वमग्निर्नरः । संतरिक्षमेव विश्वं वायुमरः । धोरेर विश्वमादित्यो मरः । शतपथ ६।३।११३ ।" इस प्रकार मनुष्य देह, अखिल ब्रह्माण्ड और वेद प्रासार हम तीनों का स्वरूप सर्वथा एक-दूसरे के साभ संतुलित एवं प्रतीकात्मक है । जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है और जो उन दोनों में है उसीका मूर्तरूप देव-प्रासाद है । इसी सिवान्त पर भारतीय देव-मंदिर की कल्पना हुई है। मंदिर के गर्भ गृह में जो देव विग्रह है वह उस प्रमाधि प्रस्त ब्रह्म तल का प्रतीक है जिसे वैविक भाषा में प्राण कहा गया है। जो सष्टि से पूर्व में भी था, जो विश्व के रोम-रोम में व्याप्त है, वही प्रारण सबका ईश्वर है । सब उसके वश में हैं । सृष्टि के पूर्व की अवस्था में उसे असत् कहा जाता है और सुष्टि की अवस्था में उसे ही सन कहते हैं । देव और भूत ये ही दो लस्व हैं जिनसे समस्त विश्व विरचित है । देव, मभूष, ज्योति पौर सत्य है । भूत भर्य, लम और अनुत है । भूत को ही ससुर कहतं हैं । हम सबको एक ही समस्या है। पर्या मृत्यु, तम और प्रसत्य से अपनी रक्षा करना और प्रमूत, ज्योति एवं सत्य की शरण में जाना । यही देव का प्राश्रय है । देव की शरणागति मनुष्य के लिी रक्षा का एक मात्र मार्ग है। यहाँ कोई प्राणी ऐसा नहीं जो मृत्यु और अन्धकार से अचकर अमृत और प्रकाश की प्राकांक्षा न करला हो प्रतएव देवाराधन ही मयं मानव के लिये एकमात्र धेवपय है । इस तस्व से ही भारतीय संस्कृति के वैदिक युग में यश संस्था का जन्म हुआ । प्राणाग्नि की उपासना ही यज्ञ का मूल है । त्रिलोकी या रोदसी ब्रह्माण्ड की पूलभूत शक्ति को हर कहते हैं । 'अग्निः ' इस सूत्र के अनुसार जो प्राणाग्नि है वही पर है : 'एक एवा-- मिनबहधा समिदः' इस वैदिक परिभाषा के अनुसार जिस प्रकार एक मूलभूत अग्नि से अन्य प्रमेा मशिनयों का समिन्धन होता है उसी प्रकार एक देव अनेक देवों के रूप में सोक मानस की कल्पना में माता है। कौन देव महिमा में अधिक है. यह प्रश्न ही प्रसंगत है । प्रत्येक देव अमृत का रूप है। वह शक्ति का अनन्त अक्षय स्रोत है । उसके विषय में उत्तर प्रौर पर मान-छोटे के तारतम्य की कल्पना नहीं की जा सकती। ' देव तस्व मुल में अध्यक्त है। उसे ही ध्यान की शक्ति से व्यक्त क्रिया आता है। हृदयं की इस प्रदभुत शक्ति को ही प्रेम या भक्ति कहते हैं । यज्ञ के अनुष्ठान में और देवप्रामादों के अनुष्ठान में मूलसः कोई अन्तर नहीं है जिस प्रकार यज्ञ को त्रिभुवन की नाभि कहा आता पा और उसकी पग्नि जिस वेधि में प्रथलित होती थी उस वेदिको प्रनादि अनंत पृथ्वी का केन्द्र मानते थे, उसी प्रकार देव मन्दिर के रूप में समष्टि विश्व व्यस्टि के लिये मूर्त बनता है और जो समष्टि का सहस्र शीर्षा पुरुष है वह व्यष्टि के लिये देव-विग्रह के रूप में मूर्त होता है । यज्ञों के द्वारा देव तत्व की उपासना एवं देव प्रासादों के द्वारा उनी देव तत्व की प्राराधना ये दोनों ही भारतीय संस्कृति के समान प्रतीक थे। देव मंदिर में जो पूर्ण विग्रह की प्रदक्षिणा या परिक्रमा की जाती है उसका अभिप्राय भी यही है कि हम अपने पाप को उस प्रभाद-क्षेत्र में लौन कर देते हैं जिसे देष की महान् प्राणशक्ति या महिमा कहा जा सकता है। उपासना या प्राराधना का मुलतत्व यह है कि मनुष्य स्वयं देव हो जाय। जो स्वयं प्रदेवं है अर्थात् देव नहीं बन पाता वह देव को पूजा नहीं कर सकता । मनुष्य के भीतर प्राण मोर मन ये दोनों देवर हो हैं इनमें दिव्य भाव उत्पन्न करके ही प्रारी देव की उपासना के योग्य बनता है।

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