________________
है, उन सब का पालन देवायतमों में भी करना उचित है। चतुर्दश लोकों में जिन जिन प्रासादों के प्राकार देवों ने शंकर की पूजा के लिए बनाये साड़ी की प्रकृति पर १४ एकार के प्रासात प्रचलित हुए। उनमें देश-भेद से ८ प्रकार के प्रासाद उत्तम जाति के माने जाते है..
- नागर, द्राविड़, भूमिज, लतिन, सामन्धार ( सान्धार ), विमान-नागर, दुष्पक पोर मिश्र । लतिन सम्भवतः उस प्रकार के शिखर को कहते थे जिसके उभृग में लता की प्राकृति का उठता हुमा रूप बनाया जाता था । शिखरों के ये भेद विशेषकर शृंग और तिलक नामक अलंकरणों के विभेद के कारण होते हैं।
प्रासाद के लिए भूमि का निरूपण मावश्यक है । जी भूमि चुनी जाय उसमें ६४ या सौ पद का घर बनाने चाहिए । श्येक घर का एक-एक देव होता है जिसके नाम से यह पद पुकारा जाता है। मंदिर के निर्माण में नक्षत्रों के शुभाशुभ का भी विचार किया जाता है। यहां तक कि निर्माण का के अतिरिक्त स्थापक पनि स्थपति और जिस देवता का मन्दिर हो उनके भी मत्राङ्गनाड़ो वेध का मिलान आवश्यक माना गया है । काष्ठ, मिट्टी, ईद, शिला, धातु और रत्न इन उपकरणों से मंदिर बनाए जाते हैं इनमें उत्तरोत्तर का अधिक पुण्य है। पत्थर के प्रासाद का फल अनंत कहा गया है । भारतीय देव प्रासाद अत्यन्त पवित्र कल्पना है। विश्व को जन्म देने वाले देवाधिदेव भगवान का निवास देवगृह या मंदिर में माना जाता है जिसे वेदों में हिरण्यगर्भ कहा गया है। वहीं देव मंदिर का गर्भगृह है। सृष्टि का मूल जो प्रारा तश्व है उसे ही हिरण्य कहते हैं । प्रत्येक देव प्राणतत्व है वही हिरण्य है; "एकं सद्विधाः बहुधा वदन्ति" के अनुसार एक ही देव भनेक देवों के रूप में अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक देव हिरण्य की एक-एक कला है अर्थात् मूल-भूत प्राण तस्य की एक-एक रपिम है । मन्दिर का जो उत्सव या ब्रह्म सूर है यही समस्त सूष्टि का मेरु या यूप है। उसे ही वेदों में धारण' कहा गया है। एक बाण वह है जो स्चूल प्य सष्टि का प्राधार है और जो पृथिवी से लेकर च लोक तक प्रत्येक वस्तु में प्रोत-प्रोत है । यादा पृथिवी को वैदिक परिभाषा में रोदसी ब्रह्मा कहते हैं । इस रोदसी सृष्टि में व्याप्त जो ब्रह्मसूत्र है बही इसका भूलाधार है। उसो ही वैदिक भाषा में प्रापश' भी कहा जाता है । बाण, ओपश, मेरु, यासूत्र ये सब समानार्थक है और इस दृश्य जगत के उस प्राधार को सूचित करते है जिन ध्रुव बिन्दु पर प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में जन्म से अस्य तक प्रतिष्ठित रहता है। यह मनुष्य शरीर और इसके भीतर प्रतिष्ठित प्राणतत्व दिश्चकर्मा की सबसे रहस्यमयी कृति है। देव मन्दिर का निर्माण भी सर्वथा इसी की अनुकृति है । जो चेतना या प्राण है । यही देव-विग्रह या देव भूति हैं और मन्दिर उसका शरीर है प्राण प्रतिष्ठा से पाषाणघटित प्रतिमा देवत्व प्राप्त करती है। जिस प्रकार इस प्रत्यक्ष जगत् में भूमि, अन्तरिक्ष और चौः, तीन लोक हैं. उसी प्रकार मनुष्य शरीर में और प्रासाद में भी सीन लोकों की कल्पना है । पैर पृथिबी है, मध्यभाग अन्तरिक्ष है पोर चिर एलोक है । इसी प्रकार मन्दिर की अगसी या अधिष्ठान पादस्थानीय है, गर्भगृह या मण्डोबर मध्यस्थानीय है और शिखर लोक या शीर्ष-भाग है । यह त्रिक यज्ञ की तीन अग्नियों का प्रतिनिधि है। मूल भूत एक अग्नि सष्टि के लिए तीन रूपों में प्रकट हो रही है । उन्हें हो उपनिषदों की परिभाषा में मन, प्राण और वाक् कहते हैं। बहो बाम का तात्पर्य पंचमतों से है क्योंकि पंचभूतों में प्राकास सबसे सूक्ष्म है और प्रकाश का मुख शब्दमा वाक् है ! अतएव वाक को माकाशादि पांचों भूतों का प्रतीक मानलिमा गया है। मनुष्य शरीर में जो प्राणाग्नि है वह मन, प्राण और पंचभूतों के मिलने से उत्पन्न हुई है (एतन्मयो बाऽअयमात्म बाइ मयो मनोमयः प्राणमयः शतपम १४४३१०) पुष के भीतर प्रज्वलित इस अग्नि को ही वैश्वानर कहते हैं ( स एषोऽनिवेष नसे यत्पुरुषः, शतपय १७१६१११)। जो वैश्वानर अग्नि है बही पुरुष है जो पुरुष है वही देव-विग्रहम देवमूर्ति के रूप में हम होता है । मूर्त और प्रमूर्स, लिसक्त मोर धनिसक ये प्रजापति के दो रूप हैं।