________________
बारहदरी में आ चुके थे। विट्टिदेव, उदयादित्य, युवरानी जी युवराज के साथ-साथ आये। प्रधान गंगराज और उनकी पत्नी लक्कलदेवी, दण्डनायक मरिचाने और डाकरस आदि उनके पीछे चल रहे थे। मारसिंगच्या और कवि नागचन्द्र ने युवराज को देखते है। भुसवार प्रणाम किया और प्रभु स सन्तोषपूर्ण भॊगया पाकर दण्डमावक आदि के पीछे धीरे-धीरे चलने लगे।
महाराज ने युवराज को छाती से लगाया, आँखों से दो-चार बूंदें गिरी। धीरे-से बोले, “भगवान बड़े दवालु हैं।"
सब लोग जहाँ-के-तहाँ खड़े रहे। पिता-पुत्र परस्पर आलिंगन में, पुनर्मिलन की खुशी में एक हो गये। युवराज को सहारा देकर वहाँ तक लानेवाला बिमय्या भी वहाँ से कुछ दूर हटकर खड़ा हो गया था। यह दृश्य देख उसने अपनी आँखें बन्द की, हाथ जोड़े और ऊपर की ओर मुँह करकं प्रणाम किया।
कुछ देर गम्भीर मौन वहाँ छाया रहा कि तभी महाराज विनयादित्य ने कहा, "युवराज अब आराम करें। कोई उन्हें अब तकलीफ़ न दे। क्या सव बीता, इसे हम डाकरस और अप्पाजी से जान लेंगे। सभी मन्दिर और वसतियों में पूजापाठ की व्यवस्था हो। कल राजमहल की ओर से राजधानी की सारी जनता को भोजन के लिए आमन्त्रित किया जाए।' कहकर युवराज के पास से कुछ पीछे हटकर बोले, "रेविमय्या यहाँ आओ, युवराज को शयनागार में ले जाओ। हम खुद वहाँ आएँगे।
रेविमय्या युबराज को सहारा देने पास आया। युवरानी जी, बिट्टिदेव, उदयादित्य भी उनके साथ-साथ अन्तःपुर की ओर चले गये। __ यल्लाल ने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी और फिर दूर पर खड़े मारसिंगय्या और कवि नागचन्द्र को देखा। पास आकर नम्रता से पूछा, "सब कुशल तो हैं?"
दोनों ने सिर झुकाकर इशारे से 'हाँ' जताया । “हेग्गड़ती जी और आपकी पुत्री आयी हैं न?" राजकुमार ने पूछा। ___ “नहीं, मैं युवरानी जी और राजकुमारों के साथ आया। दूसरों के भरोसे इस दायित्व को छोड़ देने की मेरे पन ने स्वीकृति नहीं दी।"
"आप लोग कब आये?" "दो दिन हुए।" "रहेंगे न?"
"ज्यादा दिन नहीं ठहर सकता। प्रभु की आज्ञा मिलते ही लौटने का विचार है। अचानक ही आना पड़ा। यद्यपि वहाँ सिंगिमय्या है, इसलिए विशेष चिन्ता नहीं। फिर भी..."
"प्रभु ने कई बार कहा है कि वे बहुत दक्ष व्यक्ति हैं। वे रहें तो आपके रहने
26 :: पट्टमहादेवी शान्तला : माग दो