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होना स्वाभाविक है। हेगड़े की बेटी को शस्त्र-विधा से क्या मतलब? कौन नारी इस सबका अभ्यास करती है? नारी के लिए यह सब क्यों? गाना, चौक पूरना, पढ़ना आदि ये सब घर से बाहर की विद्याएँ नहीं। परन्तु शस्त्र-विद्या ऐसी नहीं। सो भी पदों के साथ उडल-कुद नारी के लिए अनुचित कार्य है, नारी के गम्भीरोचित स्वभाव को यह शोभा नहीं देता है। जब सबके दिमाग़ में ऐसे विचार जड़ जमाये हुए हैं तब उनके प्रति किसी तरह की प्रतिक्रिया न कर चुप रहना ही बेहतर हैं।"
“अपका कहना भी एक तरह से सही है। हम हर बात में और बात के कहने के तरीके में अनेक तरह की विचारधाराएँ बनाते हैं। इसलिए बात करनेवालों की ध्वनि के अनुसार उनके अन्तरंग को भी समझ लेते हैं। मुझे जो लगा, मैंने कहा।"
"इस सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं कह सकता। जहाँ तक मैं समझता हूँ उसमें कोई खास बात मुझे नहीं दीखती।"
शायद बात और आगे बढ़ सकती थी कि इसी बीच नगाड़े बज उठे। तुरही की आवाज सुन पड़ी। इधर रेविमच्या भागा-भागा आया और कहने लगा, "प्रमुजी पधार रहे हैं। दोनों जल्दी-जल्दी राजपहल के महाद्वार की तरफ चल दिये।
राजमहल की स्थिति दोरसमुद्र के दक्षिण-पश्चिम की ओर थी। इसलिए नगर के गित 'पागों में मरने की सामनाने के लिा राजकुमार बल्लाल और डाकरस दण्डनाथ के संरक्षण में सोये हुए एरेयंग प्रभु का रथ नगर के दक्षिण हार से प्रविष्ट हुआ। शेष सेना ने पश्चिमोत्तर से होते हुए उत्तर द्वार से प्रवेश किया। सेनाओं के पहुंचने पर ही लोगों को मालूम हो सका कि विजयी युवराज और राजकमार लौट रहे हैं। यों तो विजयी युवराज के लौट आने की खबर शहर में पहले ही फैल चुकी थी लेकिन कब और कैसे आऐंगे, इसका पता नहीं था। सेनाओं के नगर-प्रवेश से पहले ही युवराज का रथ राजमहल के प्राचीर में पहुँच चुका था। राजमहल के पूर्वद्वार पर युवरानी और प्रधान मंघराज की पत्नी लक्कलदेवी ने उनकी आरती उतारी। राजकुमार और युवराज को जयमाला पहनाकर प्रासाद के अन्दर ले जाया गया। युवराज सहारा लेकर धीरे-धीरे क़दो से ही चल पा रहे थे। युद्ध-शिविर में चारुकीर्ति पण्डित साथ रहे इसलिए युवराज की चिकित्सा तभी आरम्भ हो गयी थी और इस कारण आराम से युवराज को सजधानी पहनने में सविधा हो गयी थी।
सहारा लेते, धीमी गति से युवराज महाराज के कक्ष की ओर बढ़ चले। उनके वहां पहुंचने से पहले ही बल्लालदेव अन्दर जाकर महाराज को युवराज के आने का समाचार सुनाकर, उन्हें प्रणाम कर, आशीर्वाद पा, उनके साथ बाहर की
पष्टमहादेवी शान्तला : भाग दो :: 25