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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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१. सामायिक
यह प्रथम आवश्यक है। यह जावज्जीव (यावज्जीवन) सावद्य-योग के प्रत्याख्यान तथा त्यागवैराग्य प्राप्त करने का प्रतिज्ञा-सूत्र है। सामायिक में साधु विषम भाव का परित्याग कर समभाव में अवस्थित होता है तथा राग-द्वेष आदि भावों के परित्याग का आंतरिक संकल्प लेता है, जिससे साधु | में आत्म-पराक्रम का संचार होता है।
सर्वज्ञ प्रभु द्वारा प्रतिपादित 'सामायिक' मोक्ष का अंग- प्रधान कारण है। यह वासीचन्दनकल्प महात्माओं को होता है। जैसे चन्दन तो स्वयं को काटने वाली कुल्हाड़ी को भी अपनी शीतलता और सुरभि ही देता है, वैसे ही सामायिक-व्रती संत-महात्माओं को भी कोई द्वेषवश कितना ही परिताप, कष्ट, निन्दादि से दु:खी करें तो भी वे उसे अपने सुहृद्-भाव से सुखी ही बनाते हैं।
उपाध्याय श्री अमरमुनिजी 'सामायिक-सूत्र' नामक ग्रंथ में लिखते हैं :
"सामायिक की साधना हृदय को विशाल बनाने के लिए है। अत एव जब तक साधक का हृदय विश्व-प्रेम से परिप्लावित नहीं हो जाता, तब तक साधना का सुंदर रंग निखर ही नहीं पाता।"३
२. चतुर्विंशतिस्तव । चौबीस तीर्थंकर साधु के लिये अनुकरणीय एवं स्तवनीय हैं। उनके स्तवन से उसमें उनके जैसे उच्च गुणों को जीवन में उतारने की तथा उस पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा स्फुरित होती है।
३. वंदना
साधु के जीवन में तीर्थंकरों के पश्चात अपने गुरुजन का सर्वोपरि स्थान है। तीसरे आवश्यक में गुरु-वंदन का विधान है। साधु के मन में अपने गुरुजन के प्रति भक्ति, श्रद्धा, प्रशस्त भावना, आदर आदि वंदन के अंतर्गत ही आते हैं।
४. प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण जैन-परंपरा का बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द है। इसका अर्थ है वापस लौटना। अर्थात स्वभाव से विभाव की ओर गमनोद्यत आत्मा को पुन: अपने स्वभाव में लौटाना अथवा अपने स्वरूप में आना प्रतिक्रमण है।
१. आवश्यक-सूत्र का सारांश, परिशिष्ट-९, पृष्ठ : १. २. अभिधान राजेन्द्रकोश में सूक्ति-सुधारस, खण्ड-७, पृष्ठ : १०१. ३. सामायिक-सूत्र, पृष्ठ : ७३.