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HESASUR
SHRI
BARABANESRAYA
AMINASHIKARAN
PORAN
MARATHASA
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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन ।
अहिंसा आदि के अनुसरण में, अनुपालन में प्रवृत्त होता है। प्रवृत्त होने मात्र में ही सफलता नहीं है, क्योंकि साधना का पथ विनरूपी कंटकों से आच्छन्न है। विघ्न, बाधाएँ आकर प्रवृत्ति को रोक भी सकती हैं। इसलिए उसकी अगली कोटि स्थिरता है।
सतत् अभ्यास से जब प्रवृत्ति या अहिंसा आदि यमों की परिपालना सुदृढ़ हो जाती है। तब विनों के तूफान साधक को विचलित नहीं कर पाते। वह स्थिरतामयी दशा 'स्थिर-यम' के नाम से अभिहित की गई है। फिर यमों के प्रतिपालन में विचलन उत्पन्न नहीं होता। जब यमों की साधना या आराधना स्थिरतापूर्वक गतिशील रहती है तो उसमें सफलता-सिद्धि प्राप्त होती है। यमों का सम्यक्, यथावत् परिपालन सिद्ध हो जाता है।
प्रवृत्तचक्र-योगी 'इच्छा-यम' या 'प्रवृत्ति-यम' को सिद्ध कर लेते हैं, ऐसा कहा गया है। उसका अभिप्राय यह है कि उनकी साधना की गति, इच्छा को प्रवृत्ति की ओर बढ़ाती है और उसे सिद्ध कर लेती है। ___इन दो योगों के सिद्ध होने के साथ-साथ प्रवृत्तचक्र-योगी में आठ गुण और निष्पन्न होते हैं, जो इस प्रकार हैं
१. शुश्रूष- 'प्रवृत्तचक्र-योगी' सत् तत्त्व सुनने की अभिलाषा या आकांक्षा रखता है। २. श्रवण- अर्थ पर भलीभाँति मनन और निदिध्यासन करता हुआ, तत्त्व-श्रवण करता है। ३. श्रुत- सुने हुए तत्त्वों को वह स्वीकार करता है। ४. धारण- स्वीकार किए तत्त्वों की वह अवधारणा करता है। चित्त में उनके संस्कार सुदृढ़ करता
५. विज्ञान- अवधारणा करने पर उसको विशिष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। प्राप्त बोध दृढ़ संस्कार के कारण प्रबल बन जाता है।
६. ईहा- चिंतन, विमर्श, तर्क, वितर्क, शंका-समाधान करता है।
७. अपोह- शंका का निवारण करता है। चिंतन-मंथन के अंतर्गत होने वाले बाधक अंश का निराकरण करता है।
८. तत्त्वाभिनिवेश- तत्त्व में निश्चयपूर्ण प्रवेश अथवा तत्त्व निर्धारणात्मक आंतरिक स्थिति प्राप्त करता है।
प्रवत्तचक्र-योगी 'आद्यावंचक' या 'योगावंचक' प्राप्त कर लेते हैं। वैसा कर लेने का यह अमोघ
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माना जाता था।
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