Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 524
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन में इस संबंध में विस्तार से विचार किया गया है। यह प्रसंग इस अध्याय में संक्षेप में वर्णित हुआ है। उपनिषद वेदों के ज्ञानकांड के अंतर्गत माने जाते हैं। उनमें जीव, परमात्मा, ब्रह्म आदि का विभिन्न स्थलों में विवेचन हुआ है। ब्रह्म के स्वरूप, बहिर्जगत् से ब्रह्म की अतीतता, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीयता, ब्रह्म-ज्ञान से ब्रह्म के साक्षात्कार आदि विषयों पर उपनिषदों में जो प्रतिपादन हुआ है, उन पर संक्षेप में इस अध्याय में विचार किया गया है। श्रीमद्भागवत, अवधूत गीता एवं विवेक चूडामणि में ब्रह्म के विषय में विविध रूप में जो आख्यान हुआ है, उसका भी सार इस अध्याय में उपस्थित किया गया है। ब्रह्म और सिद्ध के स्वरूप का तुलनात्मक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। वैदिक दर्शन और जैन दर्शन में सृष्टि-कर्तत्व के विषय में सैद्धांतिक अंतर है। वैदिक दर्शन में परमात्मा को सृष्टि का रचयिता माना जाता है। जैन दर्शन में जगत् को अनादि, अनंत माना गया है। जो अनादि, अनंत होता है, उसका कोई स्रष्टा नहीं होता। वैदिक ग्रंथों में परमेश्वर द्वारा सष्टि रचना किए जाने को 'लीलाकैवल्य' के रूप में व्याख्यात किया गया है। उसका इस अध्याय में समीक्षात्मक दृष्टि से निरूपण किया गया है। बौद्ध दर्शन में मोक्ष या मुक्ति के लिए निर्वाण शब्द का प्रयोग हुआ है। बौद्ध विद्वानों ने निर्वाण की अनेक प्रकार से व्याख्या की है, जिसे यहाँ सार रूप में प्रज्ञप्त किया गया है। जैन दर्शन और वेदांत दर्शन में सिद्धावस्था तथा परमात्मात्मावस्था को ऐकांतिक एवं आत्यंतिक रूप में दुःख-विमुक्त और परमानंदमय माना गया है। बौद्ध-दर्शन में दु:ख-विमुक्ति का अधिक महत्त्व है। विशेषत: हीनयान में सर्व दु:खों से छूटने को ही परिनिवृत्त होना माना है। उत्तरवर्ती काल में महायान में दुःख-विवर्जन के साथ-साथ सुख को भी निर्वाण में स्वीकार किया गया, इन सभी विषयों पर इस अध्याय में सविमर्श विचार किया गया है। | भारतीय साधना के क्षेत्र में एक ऐसा समय आता है, जब ज्ञान एवं वैराग्यमय परमात्मोपासना में प्रेम तत्त्व का विशेष रूप से संयोजन हुआ। पुरुष और स्त्री के बीच प्राप्य लौकिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम का दर्जा दिया गया। इसमें हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की निर्गुणधारा में संतों और सूफियों की दो परंपराएँ प्राप्त होती हैं। संत-परंपरा में कबीर मुख्य थे। उन्होंने परमात्मा को पति और आराधक को पत्नी के रूप में व्याख्यात किया। सूफियों की उपासना-पद्धति संतों से कुछ भिन्न थी। उन्होंने परमात्मा का प्रेयसी और आराधक का प्रेमी के रूप में वर्णन किया। सफियों में मलिकमुहम्मद जायसी मुख्य थे। इस अध्याय में इन दोनों ही परंपराओं के विचारों को उपस्थित करते हुए जैन अध्यात्म योगी 485

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