Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 530
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन सार्वजनीन धर्म । भगवान् महावीर ने जो धर्म बतलाया, वह नितांत सार्वजनीन है। 'वत्थु सहावो धम्मो', .... धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई'- इत्यादि वाक्यों द्वारा धर्म के लक्षण की ओर जो संकेत किया है, उससे यह व्यक्त होता है कि धर्म तब अन्तरात्मा में घटित होता है, जब व्यक्ति के जीवन में हिंसक भाव न हो, विषमता न हो, सबके प्रति समता का भाव हो, शांति, धृति, उदारता, सहृदयता, अनुकंपा एवं करुणा का भाव हो। व्यक्ति अपने संकीर्ण स्वार्थ में अनुबद्ध न हो जाए , उसके आचार और व्यवहार में सत्य सम्यक् परिव्याप्त हो, निर्लोभता हो। वह तुच्छ वासनाओं से, परिग्रह की लालसा से विमुक्त हो। अधिकार और कर्तव्य का समन्वय । मनोविज्ञान का यह सिद्धांत है कि व्यक्ति और समाज का जीवन तभी सुखपूर्वक चल सकता है, जब उसमें अधिकार और कर्तव्य का समन्वय हो। यह सही है कि हर किसी मानव को मानवता के नाते अपने अधिकार हैं। यदि कोई उनका हनन, प्रतिषेध या प्रतिरोध करता है तो उसे कष्ट होता है, जो स्वाभाविक है। इसलिए यह वांछनीय है कि किसी के अधिकारों का हनन न किया जाए , किन्तु अधिकार के साथ-साथ मानव-जीवन में कर्तव्य होता है। यदि वह उसका पालन नहीं करता है तो वह व्यक्तिगत रूप में तथा सामाजिक रूप में दोषी है। जिस उत्साह और दृढ़ता से वह अपने अधिकारों की मांग करता है, उसी उत्साह से उसे अपने कर्तव्य को भी समझना चाहिए। आज लोगों की स्थिति इससे भिन्न दिखलाई पड़ती है। प्राय: सभी एक स्वर से अधिकारों की मांग तो करते हैं, परंतु अपने कर्तव्यों को वे भूल जाते हैं। इससे पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में अव्यवस्था उत्पन्न होती है । परस्पर संघर्ष होते हैं, सामूहिक रूप में आंदोलन होते हैं, वे हिंसक बन जाते हैं, रक्तपात होता है, राष्ट्र की उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है, व्यवसाय-उद्योगादि प्रभावित होते हैं। यह अत्यन्त आवश्यक है कि मनुष्य केवल अधिकारों की मांग न करे, वरन् वह अपने कर्त्तव्यों और दायित्वों के सम्यक निर्वाह की दिशा में अत्यंत जागरुक भी रहे। वे कर्त्तव्य पारिवारिकता से आगे बढ़कर समाज, धर्म, अध्यात्म एवं राष्ट्र तक को अपनी परिसीमा में ग्रहीत करते हैं। उनमें धार्मिक या आध्यात्मिक कर्तव्यों की परिपूर्ति प्राथमिकता में आती है, क्योंकि वैसा होने पर सहज ही सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों के निर्वाह में ऐसा बोध प्राप्त होता है, जो जीवन की तुच्छ संकीर्णता और एषणाओं को भस्मीभूत कर डालता है। दुर्भावना, विद्वेष और घृणा जैसे भाव विध्वस्त हो जाते हैं। भगवान् महावीर ने इसी प्रकार के निर्विकार, निर्दोष, समस्त प्राणीवृन्द के लिए श्रेयस्कर एवं 491 H AKREVIE BAST

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