Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 529
________________ उपसंहार उपलब्धिक निष्कर्ष युदय प्रस्तुत नव जीवन [ कार्य आज सत्यनिष्ठा, बात यह है -व्यक्ति में संभव माने सिक्ति कर्म र योग बन हीं है। वह यह है कि क्त निरंतर वह निरंतर व नहीं है। और सत्य और प्रचार र हम क्यों ऐसा क्यों हो रहा है, इसकी खोज करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म की चर्चा करने वाले, धर्म का संदेश देने वाले तथा धार्मिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा पाने वाले लोगों के क्रियात्मक एवं व्यावहारिक जीवन में धर्म के आदर्श सिद्धांत परिलक्षित नहीं होते। कथनी और करनी में बड़ा विपर्यास प्रतीत होता है। जब युवाजन यह स्थिति देखते हैं तो सहसा उनकी श्रद्धा पर आघात होता है। वे सोचते हैं, यह कैसा धर्म है, जहाँ केवल शब्द है, कर्म नहीं । तथाकथित धार्मिक जन ऐसा क्यों करते हैं ? इस बात की तथ्यात्मकता में जाएं तो यही निष्कर्ष प्राप्त होता है कि जिस आध्यात्मिक आनंद का धर्म विश्लेषण करता है, उसकी अपेक्षा उनको भौतिक सुख प्रिय लगता है। वे उसकी आपात्-रमणीयता में विमुग्ध रहते हैं, परिणामविरसता या दु:खोत्पादकता को नहीं देखते। 'खाओ, पीओ, मौज करो', चार्वाक ने जो सहस्राब्दियों पूर्व कभी यह बात कही थी, वह वैसे लोगों के जीवन में सही घटित हो रही है, जिनके केवल वाणी में धर्म है, कर्म में नहीं। नि:संदेह यह बड़ी दयनीय एवं दु:खद स्थिति है। । वास्तव में यह धार्मिकता नहीं है, किंतु ऐसा होते हुए भी आज उन्हीं तथाकथित धार्मिक लोगों की प्रतिष्ठा है, जो साधन संपन्न, अधिकार संपन्न और शक्ति संपन्न हैं । ये नगण्य हैं, किन्तु यही आज मान्यता-प्राप्त हैं। यह चिंता का विषय है। यह क्रम यदि उत्तरोत्तर गतिशील रहा तो जिसे आज धर्म के नाम से पूजित और प्रतिष्ठित किया जा रहा है, उसका भविष्य नि:संदेह अंधकारपूर्ण है। आज का युवक बुद्धिवादी, यथार्थवादी और मूल्यवादी है। यदि धर्म की यथार्थता, शुद्धता और मुल्यवत्ता प्रस्फुटित नहीं होगी तो उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं है। धर्म के तथाकथित स्तंभ ट्टते जाएंगे, क्योंकि वे सचाई को खोते जा रहे हैं, इसलिए वे जर्जर हो रहे हैं। इस ओर धार्मिकों को विशेष रूप से ध्यान देना होगा, आत्मावलोकन करना होगा। भौतिक आकर्षण और मानसिक विकृतता के कारण उनमें जो धर्म की मात्र प्रदर्शन-प्रिय-प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, उसे परिवर्तित करना होगा। भौतिक अभीप्साओं की प्रबलता तथा स्वार्थपरता आदि अनेक विकृतियों को पनपाने के बावजूद वर्तमान युग ने एक ऐसी बौद्धिक चेतना मानव में अवश्य संयोजित की है, जिस द्वारा वह उपयोगिता अनुपयोगिता का निर्णय करने में काफी सतर्क है। उस निर्णय की कसौटी पर धार्मिकता का क्रियाशून्य रूप नहीं टिक पाएगा। उसके आश्रय पर जीवित रहने वाले, तथा अपनी एषणाओं की पूर्ति में लोक-श्रद्धा का दुरुपयोग करने वाले, आध्यात्मिक शोषण करने वाले लोगों को युग सह नहीं पाएगा। इसलिए यह कहना अतिरंजित नहीं है कि आडंबरपूर्ण, निःसत्त्व, केवल आयोजनात्मक, कोलाहलमय धर्म को आने वाला युग कदापि स्वीकार नहीं करेगा। e religion से चिंतन है कि युवा लोगों की चे धर्म से यदा-कदा हीं होता। 490

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