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उपसंहार उपलब्धि निष्कर्ष
श्री आनंदघनजी के उद्गारों का भी उल्लेख किया है, जिन्होंने सिद्ध परमात्मा का पति के रूप में वर्णन किया है। इससे पूर्ववर्ती संस्कृत के जैन ग्रंथों में भी कहीं-कहीं लेखकों ने सिद्ध और आराधक का इसी रूप में संकेत किया है।
इस विषय पर समीक्षात्मक दृष्टि से इस अध्याय में विवेचन किया गया है। अध्यात्म के साथ लौकिक प्रेम की किस प्रकार संगति हो सकती है, इस पर मनोवैज्ञानिक एवं तात्विक दृष्टि से विचार किया गया है।
प्रस्तुत विषय को शोध - हेतु स्वीकार करने में तत्त्वानुशीलन के अतिरिक्त एक और भी चिंतन रहा। आज संसार भौतिकवाद में डूबता जा रहा है। धार्मिक मूल्य मिटते जा रहे हैं। हिंसा का दानव संसार को निगल लेना चाहता है। नैतिकता, प्रामाणिकता, सदाचार, मैत्री, सहयोग, करुणा आदि उच्च मानवीय गुण आज नष्ट होते जा रहे हैं।
यह केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं है। हर कहीं पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में यह व्याप्त है, यदि यही क्रम गतिशील रहा तो हमारी सहस्राब्दियों पुरानी आध्यात्मिक संस्कृति के विलुप्त हो जाने का भय है । हिंसा द्वारा हिंसा नहीं मिट सकती । शस्त्रों के बल पर शांति स्थापित नहीं की जा सकती। क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है। हिंसा से तो हिंसा को और अधिक बढ़ावा मिलता है, वैर भाव पुष्ट होता है। भगवान् महावीर ने तो बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वैर से बैर कभी नहीं मिटता, उसके मिटने का मार्ग तो मित्र - भाव, सौहार्द, और समत्व है, जिनके साथ अहिंसा का आदर्श जुड़ा रहता है।
यह सत्य है कि संसार में सभी लोग शांति चाहते हैं, सुख चाहते हैं। तदर्थ सम्मेलन आयोजित करते हैं, विचार-मंथन करते हैं । निःशस्त्रीकरण और अनाक्रमणमूलक संधियों की चर्चाएँ होती हैं, निर्णय लिए जाते हैं, किंतु उनका कोई परिणाम दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है।
विज्ञान आज अत्यंत विकासोन्मुख है, वर्षों में होने वाले कार्य क्षण भर में हो जाते हैं। आकाश में पक्षी की तरह मानव विहरण करने में सक्षम हो गया है, और भी अनेक प्रकार की चामत्कारिक | उपलब्धियाँ उसने प्राप्त की हैं, किंतु यह सब होने पर भी वह अशांति की ओर बढ़ रहा है। वैज्ञानिक प्रतिभा का प्रयोग आज विनाशकारी शस्त्रास्त्रों और साधनों के निर्माण में हो रहा है, जो अत्यंत दुःखजनक है जो शक्ति और धन लोगों के सुखप्रद साधनों के निर्माण में लगना चाहिए, वैसा बहुत कम हो रहा है। राष्ट्रों में अपने को अधिक शक्तिशाली बनाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है।
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यह सब क्यों हैं ? इसका बस एक ही उत्तर है- विज्ञान को तो मानव ने अपनाया, किंतु धर्म को अपने जीवन में सर्वथा गौण बना दिया । विज्ञान और धर्म का जीवन में समन्वय होना चाहिए । विज्ञान जब धर्म के अहिंसा, सत्य, त्याग और अपरिग्रहमूलक सिद्धांतों से अनुशासित होता है, तब वह
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