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पामो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक अनुशीतन
अज्ञान का नाश परमात्मानुभूति
पुरुष का अनात्म वस्तु में पर पदार्थों में अहम् बुद्धि का होना ही बंधन का हेतु है । वह जन्म-मरण रूप कष्टों को प्राप्त कराने वाले अज्ञान से प्राप्त होता है। इसके कारण यह जीव इस | असत् - नश्वर देह को सत्य समझ कर, इसमें आत्म- बुद्धि मानने लगता है । रेशम के कीड़े के समान वह विषय रूपी कुंथुओं द्वारा अपना पोषण, संमार्जन और रक्षण करता रहता है ।
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मोहमूढ़ पुरुष को तमोगुण के कारण ही अन्य में 'अन्य बुद्धि' होती है अर्थात् जो जैसा नहीं है, वह वैसा मानता है। जिसमें विवेक नहीं होता, वह पुरुष रज्जु को सर्प मानने लगता है, उसको भिन्न-भिन्न प्रकार के अनर्थ आ घेरते हैं। वह असत् को सत् मानता है, यही बंधन है। अखंड, नित्य, | अद्वितीय बोध सत्य से शुद्ध होते हुए अनंत वैभव- युक्त आत्म-तत्त्व को यह तमोगुणमयी आवरण- शक्ति | इसी प्रकार आवृत्त कर लेती है, जैसे राहु सूर्यमंडल को ढक लेता है।
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दृश्यमान जगत् को अविनाशी, सत्य मानना अज्ञान है उससे व्यक्ति सत् आत्मा को नहीं जान पाता, उसका व्यवहार विपरीत या उल्टा हो जाता है । अत्यंत निर्मल, तेजोमय, आत्म-तत्त्व के तिरोहित, अदृश्य या लुप्त हो जाने पर पुरुष अनात्म देह को ही मोहवश 'मैं हूँ' ऐसा मानने लगता है। तब रजोगुणमय विक्षेप नामक अत्यंत प्रबल शक्ति काम, क्रोधादि अपने बंधनकारक गुणों से उसको अत्यंत व्यथित, दुःखित करने लगती है। इसके फलस्वरूप यह कुत्सित मतियुक्त जीव भिन्न-भिन्न प्रकार की नीच गतियों में विषरूपी विषय से भरे हुए इस संसार रूपी सागर में डूबता उत्तराता है।
मोह रूपी ग्राह के पंजों में पड़ने से उसका आत्मज्ञान नष्ट हो जाता है। वह बुद्धि के गुणों का अभिमानी होकर उसकी नाना अवस्थाओं का अभिनय करता हुआ भटकता है। जिस प्रकार सूर्य की प्रभा से संजनित ( पैदा हुई) बादलों की पंक्ति सूर्य को ही आवृत्त कर स्वयं फैल जाती है, उसी प्रकार आत्मा से प्रकटित अहंकार आत्मा में ही स्वयं अवस्थित हो जाता है।
आत्मज्ञान- मुक्ति का उपाय
जो असंग - आसक्ति रहित, निष्क्रिय- क्रिया - रहित, निराकार आकृति रहित है, उसका, उस आत्मा का तदितर पदार्थों से उसी प्रकार कोई संबंध नहीं, जिस प्रकार आकाश का नीलेपन आदि से कोई संबंध नहीं होता। यह सब भ्रमजनित है। आनंद स्वरूप उस आत्मा में भ्रांति के ही कारण | जीवनाभाव की प्राप्ति होती है । वह सत्य वास्तविक नहीं है । वह अवस्तु रूप है, जो मोह के जाने पर स्वयं मिट जाती है।
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१. विवेक चूड़ामणि, श्लोक - १३९-१४४.
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