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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन
तुम परमात्मा हो, परमात्म-स्वरूप हो, सांसारिक रूप प्राप्त हुआ है। अज्ञान के कारण ही तुम्हें अनात्म-बंधन हुआ है। आत्मा और अनात्मा के विवेक से उत्पन्न हुई बोध रूपी अग्नि, अज्ञान रूप कारण से उत्पन्न संसार रूप कार्य को मूल सहित दग्ध कर डालेगी।
पुन: प्रश्न ___ "स्वामिन् ! कृपया श्रवण कीजिए- मैं प्रश्न कर रहा हूँ, आप के मुख से मैं उसका उत्तर सुनकर कृतार्थ हो जाऊंगा।
बंधन क्या है ? यह कैसे हुआ ? उसकी स्थिति कैसी है ? इससे मोक्ष कैसे मिल सकता है ? अनात्म क्या है ? परमात्मा क्या है ? उनका विवेक- परमात्मा और अनात्मा का पार्थक्य-बोध कैसे होता है ? यह कृपया बतलाइए।"२
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पुन: समाधान
शिष्य तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो। तुमने अपने कुल को पवित्र किया, क्योंकि अविद्या रूपी बंधन से छूट कर ब्रह्मभाव को प्राप्त करना चाहते हो।
पिता के ऋण का मोचन करने वाले, चुकाने वाले तो पुत्र आदि भी होते हैं, किंतु संसार के बंधन से मोचन कराने वाला, अपने आप से भिन्न कराने वाला और कोई नहीं है। । जैसे मस्तक आदि पर रखे हुए बोझ को तो दूसरे ही दूर कर सकते हैं, किंतु क्षुधा और पिपासा | आदि से जनित दुःख को तो अपने अतिरिक्त और कोई मिटा नहीं सकता। जिस प्रकार जो रोगी
औषधि का और पथ्य का, समुचित आहार आदि का सेवन करता है, उसको आरोग्य रूप सिद्धि प्राप्त हो जाती है। किसी अन्य द्वारा किए हुए कार्यों से रोग-मुक्त नहीं हो सकता। विवेकी पुरुष को अपना वास्तविक स्वरूप अपने उद्बोध नेत्रों द्वारा ही जानना चाहिए।
जैसे चंद्रमाँ का स्वरूप अपने ही नेत्रों द्वारा देखा जाता है। क्या वह अपने लिये दूसरों के द्वारा देखा जा सकता है?
अविद्या, कामना अथवा कर्म आदि के पाश के बंधनों को सौ करोड कल्पों में भी अपने अतिरिक्त कौन विमोचित कर सकता हैं, कौन खोल सकता है?
१. विवेक चूड़ामणि, श्लोक-४५, ४८, ४९. २. विवेक चूडामणि, श्लोक-५०, ५१.
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