Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 496
________________ कर लेता ना, क्योंकि - प्रतिमा छा-रहित, परमेश्वर तक तथा के उपाय वर्ग प्राप्त होने पर ऊँच-नीच शुद्ध नहीं न्मात्राएं, ता है। न्यास रखे या है कि सिद्धलोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण न्यायदर्शन में निःश्रेयस् या मोक्ष, जहाँ दुःखों का अत्यंत उच्छेद हो जाता है, तत्त्व ज्ञान से प्राप्त होता है, ऐसा माना गया है । न्यायसूत्र में लिखा है "प्रमाणप्रमेयसंशय-प्रयोजन- दृष्टान्त-सिद्धान्त-अवयव तर्क निर्णय-वाद- जल्पवितण्डाहेत्वाभास छल-जाति-निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः । - प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह-स्थान- इनके तत्त्वज्ञान से मोक्ष अधिगत- प्राप्त होता है । "१ वैशेषिक दर्शन के अनुसार, जिसे औलूक्य दर्शन भी कहा जाता है संसार में सभी बुद्धिमान | व्यक्ति स्वभावतः दुःख का नाश करना चाहते हैं, क्योंकि दुःख प्रतिकूल वेदनीय है, उनकी प्रगति के विरुद्ध है। सभी उसका अपनी आत्मा में अनुभव करते हैं। वे दुःख को मिटाने का उपाय जानना | चाहते हैं । परमेश्वर का साक्षात्कार ही दुःखों के नाश का एक मात्र उपाय है। परमेश्वर का साक्षात्कार श्रवण, मनन और भावना द्वारा होता है । " शास्त्रदीपिका में उल्लेख हुआ है त्रेधा हि प्रपचः पुरुषं बध्नाति भोगायतनं शरीरम्, भोग-साधनानि इन्द्रियाणि भोग्याः शब्दादयो विषयाः । भोग इति च सुख-दुःख विषयोऽपरोक्षानुभव उच्यते । तदस्य त्रिविधस्यापि बन्धस्य आत्यन्तिको विलयो मोक्षः । भोग का आयतन - आश्रय शरीर, भोग के साधन - इन्द्रिय तथा भोग योग्य शब्दादि विषय- यह तीन प्रकार का प्रपंच पुरुष को बन्धनगत करता है। इनसे पुरुष बंधा रहता है। । सुख तथा दुःख का साक्षात् अनुभव भोग कहा जाता है । इस त्रिविध ( तीन प्रकार के ) प्रपंच का, बन्धन का आत्यन्तिक विलय सर्वथा नाश, मोक्ष है।' समीक्षा सिद्ध एवं ब्रह्म के अनेक पक्षों पर पूर्व पृष्ठों में विस्तार से चर्चा की गई है। इन्हें जीवन के परम लक्ष्य के रूप में अभिहित किया गया है। उन्हें परमसाध्य भी कहा जा सकता है। उन्हें प्राप्त या १. न्यायसूत्र अध्याय १, आह्निक-१, सूत्र - १. २. सर्वदर्शनसंग्रह, पुष्ठ ३९१-३९४. ३. भारतीय दर्शन के प्रमुखवाद, पृष्ठ १७२. 458

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