Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 506
________________ सिद्धत्वोपलब्धि ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण । द्वानों द्वारा | ब्रह्म और न शब्दों की यक्त करने । हिंदी में पर विशाल 'आधुनिक पर भक्ति यहाँ लौकिक प्रेम के रूपक का प्रयोग है। लौकिक नारी के लिए प्राण त्यागना अभिधेयार्थ है, किंतु जीवात्मा के प्रसंग में यह वियोग की असह्यता का द्योतक है। परमात्मा रूपी प्रियतम से आत्मा रूपी प्रियतमा का वियोग हो गया है। अपने प्रियतम के विरह में आत्मा किस तरह पीड़ा का अनुभव करती है, कबीर ने इसका भाव-चित्र उपस्थित करते हुए लिखा हैं- चकवा और चकवी का विरह प्रसिद्ध है। चकवा-चकवी का तो प्रात:काल मिलन हो जाता है, किंतु राम का- परमात्मा का विरह ऐसा नहीं है। एक बार जो परमात्मा से बिछुड़ जाता है। वह न तो उनसे दिन में मिल सकता है, और न रात में ही मिल सकता है। उसको न दिन में, न रात में, न स्वप्न में, न धूप में तथा न छाया में ही सुख मिलता है। विरहिणी (आत्मा) रास्ते में खड़ी हुई हर राहगीर से दौड़कर पूछती है- बतलाओ मेरा प्रियतम कहाँ हैं? वह मुझे आकर कब मिलेगा?? कठोपनिषद् में भी एक स्थान पर इसी प्रकार का संकेत प्राप्त होता है, लिखा है नायमात्मा प्रवचनेन लभ्य: न मेधया वा बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्य: तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ।। परबह्म परमात्मा को प्रवचन द्वारा उन के शास्त्रीय विवेचन-विश्लेषण द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, न बुद्धि और तर्क द्वारा ही उनका साक्षात्कार किया जा सकता है तथा न बहुत कुछ सुनते रहने | से ही उन्हें पाया जा सकता है, वे उसी को प्राप्त होते हैं, जिसके लिए अपने स्वरूप को स्वयं उद्घाटित कर देते हैं। उपनिषद्कार का यहाँ यह अभिप्राय है कि जो परमात्मा में समर्पित हो जाता है, उसीको स्वयं ही परमात्मा प्राप्त हो जाते हैं। यह श्लोक ज्ञान के साथ प्रेम को जोड़ने वाले संतों के लिए बड़ा प्रेरक सिद्ध हुआ। मात्मा के हा जाता का उनमें दांत और किया। रहती है, को प्राप्त वेश्लेषण सूफी-परंपरा नर्गुणधारा में संत-परंपरा के साथ सुफियों की एक और विशेष परंपरा रही है। सूफी परंपरा में वे मुसलमान साधक और कवि समाविष्ट हैं, जिन्होंने प्रेम की तीव्रता के आधार पर परमात्म-साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त किया। चित्रण - चतुर १. कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ : १५१. २. कठोपनिषद्, अध्याय-१, वल्ली-२, श्लोक-३ : इशादि नौ उपनिषद्, पृष्ठ : ९५, ९६. 468 104 नि SANSAR HURMANANTRA.

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