Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 519
________________ उपसंहार : उपलब्धि : निष्कर्ष नाधार ग की पहना, वास. गा में सेद्धों दों में -जहाँ वान् व के क के कुमार नर्मल काल ये ग्रंथ दो प्रकार के हैं- कुछ तो टीका, वृत्ति एवं व्याख्या आदि के रूप में और कुछ स्वतंत्र रूप में लिखे गए हैं। णमोक्कार मंत्र का, जैसा प्रस्तुत शोध-ग्रंथ में संकेत किया गया है, आगमों में सर्वप्रथम व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र में मंगलाचरण के रूप में प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि ने अपनी टीका में णमोक्कार मंत्र का जहाँ विश्लेषण किया है, वहाँ उन्होंने सिद्ध-पद पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। सिद्ध-पद की व्युत्पत्ति, विवेचन करते हुए उसके अर्थों को विशेष रूप से व्याख्यात किया है। उस प्रसंग को इस अध्याय में निरूपित किया गया है, जिससे सिद्ध शब्द के साथ संबद्ध अर्थों के विषय में यथेष्ट अभिज्ञता प्राप्त हो सके। अनेक विद्वानों ने सिद्ध शब्द के धातु निष्पन्न एवं अन्य अर्थों पर जो विचार किया है, उसका भी यहाँ उल्लेख किया गया है, जिससे यह प्रगट होता है कि विद्वानों का इस महत्त्वपूर्ण शब्द के विश्लेषण की ओर अत्यधिक आकर्षण रहा है। महानिशीथ-सूत्र में जो सिद्ध-पद का विश्लेषण हुआ है, वह भी जिज्ञासु अध्येताओं के लिए पठनीय है। - आगमोत्तर काल में अनेक आचार्यों एवं विद्वानों ने प्राकृत में रचनाएँ की हैं, व्याख्यामूलक रचनाओं के रूप में भाष्य तथा नियुक्तियाँ लिखी गईं हैं । आचार्य भद्रबाहु विरचित आवश्यक-नियुक्ति, नमस्कार-नियुक्ति में सिद्ध-पद, तप: सिद्ध, कर्म-क्षय सिद्ध एवं सिद्धभूमि के स्वरूप इत्यादि का वर्णन प्राप्त होता है, जो साहित्यिक दृष्टि से प्राचीन है। सार रूप में उसका यहाँ उल्लेख किया गया है। सुप्रसिद्ध दिगंबर आचार्य श्री देवसेन द्वारा रचित 'तत्त्वसार', सिद्धचन्द्र गणी कृत 'सप्तस्मरण', हर्षकीर्ति सूरि रचित 'णमोक्कार मंत्र-व्याख्या', तथा 'सिद्ध णमोक्कारावली' आदि ग्रंथों में सिद्धों के स्वरूप वैशिष्ट्य, सिद्धत्व-आराधना, आत्मा की भाव-सिद्धत्व-दशा, सिद्धों के गुण आदि का सारांश प्रस्तुत अध्याय में उपस्थित किया गया है। इन प्राकृत रचनाकारों ने सिद्ध-पद के परिप्रेक्ष्य में जो विविध तथ्य उद्घाटित किए हैं, वे अध्येय हैं। प्राकृत ग्रंथकारों की गहन तात्त्विक विषयों को निरुपित करने में हार्दिक अभिरुचि रही, जो उन द्वारा किए गए विवेचनों से प्रकट होती है, सिद्धत्व-विषयक बोध-वर्धन में यह विवेचन वास्तव में उपयोगी है। आगमोत्तरकाल में जैन आचार्यों और लेखकों द्वारा प्राकृत के अतिरिक्त संस्कृत में भी विपुल साहित्य रचा गया। उन्होंने अनेक स्थलों पर णमोक्कार मंत्र की अपनी शैली में व्याख्या की। उसके अन्तर्गत सिद्ध-पद का विशद विवेचन किया। मोक्ष, मुक्ति आदि शब्द सिद्धत्व के पर्यायवाची हैं। संस्कृत लेखकों ने अपने ग्रंथों में मोक्ष का भी जो वर्णन किया है, उसे इस प्रसंग में ग्रहीत किया गया है। इंसक जाता जाता परिक में है । 480

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