Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 518
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन जीवाजीवाभिगम, सूर्यप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक एवं कल्पसूत्र इन सूत्रों के आधार पर सिद्धत्व से संबद्ध अनेक पक्षों को उपस्थित किया गया है। उनमें सिद्धों के स्वरूप, निर्वाण की महिमा, सिद्ध-पद की वर्गणा, सिद्ध-स्थान, भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, सिद्धों के एकरूपत्व, प्रदेशावगाहना, सिद्ध जीवों की वृद्धि-हानि, अवस्थिति, असंसार समापन्नकता, उपचय, संहनन, संस्थान, आवास, योगनिरोध, भेद, अनाहारकत्व आदि पर विवेचन किया गया है। साथ ही साथ सिद्धत्व की दिशा में उन्मुख साधक की भूमिका, सिद्धत्व प्राप्ति की सुलभता, दुर्लभता, संवर-आराधना द्वारा मुक्ति, सिद्धों की परमानंदावस्था इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों की भी चर्चा की गई है। सिद्धों के संदर्भ में आगमों में जो विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, उसका नवनीत संक्षिप्त शब्दों में उपस्थित करने का प्रयास किया गया है। विवेचन में समीक्षात्मक दृष्टि रखी गई है, इसलिए जहाँ-जहाँ अपेक्षित हुआ है, वहाँ जैनेतर विचार-धाराओं को तुलना के रूप में उपस्थित किया गया है। भगवान् महावीर और गौतम के वार्तालाप के प्रसंगों को भी उपस्थित किया गया है, जिनमें सिद्धत्व के संबंध में गौतम के प्रश्न और भगवान महावीर द्वारा दिए गए समाधान हैं। सिद्धत्व की गौरवमयी लंबी यात्रा तब अति स्वल्पकाल में सिद्ध हो जाती है, जब साधक के परिणामों में तीव्रतम वैराग्य, विशुद्ध आत्मभावोपपन्नता समुत्थित होती है। द्वारिका के राजकुमार गजसुकुमाल इसके उदाहरण हैं, जिन्होंने मुनि रूप में अत्यन्त घोर कष्ट को इतने समत्वपूर्ण, निर्मल परिणामों के साथ सहन किया, जिससे उनके शुद्धोपयोग की धारा इतनी पवित्र हो गई कि तत्काल मुक्त हो गए। अंतकृद्दशांग सूत्र में आए हुए इस प्रसंग को विशेष रूप से समुपस्थित किया गया है। एक दूसरा प्रसंग अर्जुनमाली का है, जो बौद्ध साहित्य में वर्णित अंगुलिमाल दस्यु की तरह घोर हिंसक था, किंतु उसके जीवन में एक ऐसा प्रसंग आता है कि वह भगवान् महावीर की शरण में आ जाता है, साधुत्व अंगीकार कर लेता है और इतना वैराग्यशील, सहनशील और तितिक्षा-परायण हो जाता है कि बहुत थोड़े समय में ही सिद्धत्व प्राप्त कर लेता है। इन उदाहरणों के उपस्थित किए जाने का यह अभिप्राय है कि सिद्धत्व की प्राप्ति आंतरिक पवित्रता, उज्ज्वलता और विशुद्धता पर आधारित है। सिद्धत्व के संबंध में इस अध्याय में किया गया निरूपण सिद्धावस्था या मुक्ति के साथ संपृक्त प्राय: इन सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों को विशद रूप में प्रगट करता है, जिनका ज्ञान एक मुमुक्षु के लिए निश्चय ही बहुत लाभप्रद है। चतुर्थ अध्याय आगमों के अतिरिक्त जैनाचार्यों एवं विद्वानों द्वारा प्राकृत तथा संस्कृत में लिखे गए ग्रंथों में णमोक्कार महामंत्र का जहाँ विवेचन हुआ है, वहाँ सिद्ध-पद पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। 479

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