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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन।
| सर्वथा दु:ख-रहित और परम आनंदमय मानते हैं। संभव है, यह विचार भी बौद्ध विद्वानों द्वारा निर्वाण को सुखमय माने जाने में कुछ कारण बना हो । वेदान्त दर्शन और जैन दर्शन में ब्रह्म और सिद्ध की व्याख्या में वाणी समर्थ नहीं मानी गई है। बौद्ध दर्शन में भी निर्वाण का स्वरूप शब्दों की परिधि में नहीं आता। वाणी और शब्द तो अपूर्ण हैं, ससीम हैं, वे पूर्ण और असीम को व्यक्त करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं। निर्गुणमार्गी संत-परंपरा में परमात्मोपासना का मार्ग ___ आधुनिक भारतीय भाषाओं में व्यापक प्रसार की दृष्टि से हिंदी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिंदी में शौर्य, ज्ञान, भक्ति, काव्य, शंगार, रीति, अलंकार-शास्त्र एवं जन-जीवन के विविध आयामों पर विशाल साहित्य की रचना हुई। विद्वानों ने हिंदी साहित्य को आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल तथा आधुनिक काल- इन चार भागों में विभक्त किया है। निर्गुण-भक्ति एवं सगुण-भक्ति के आधार पर भक्ति काल की दो शाखाएँ हैं।
निर्गुण-भक्ति-धारा में निराकार परमात्मा की उपासना को स्वीकार किया गया है। परमात्मा के विराट् स्वरूप का साधक को बोध हो, यह आवश्यक है। इसलिए इसे ज्ञानाश्रयी मार्ग कहा जाता है। इसमें दादू, रैदास, मलूकदास, धन्ना, पीपा आदि अनेक संत हुए हैं। कबीर का उनमें महत्त्वपूर्ण स्थान है।
कबीर ने ज्ञान के साथ प्रेम-तत्त्व को विशेष रूप से जोड़ा। कबीर ने ज्ञानाश्रित वेदांत और भावाश्रित भक्ति का अद्भुत समन्वय किया। परमात्मा को उन्होंने पति के रूप में स्वीकार किया। जैसे एक पतिव्रता नारी अपने पति को ही अपना सर्वस्व मान कर उसी का ही ध्यान लगाए रहती है, उसी प्रकार साधक परमात्मा में लीन रहे, अपने आपको समर्पित कर दे, तभी वह उनको प्राप्त कर सकता है।
कबीर ने पति-पत्नी भावमूलक उपासना पर अनेक रूपों में बड़ा मार्मिक, अन्तःस्पर्शी विश्लेषण किया है। एक स्थान पर वे लिखते हैं
कबीर सुन्दरी यों कहै, सुन हो कंत सुजाण ।
बेगि मिलौं तुम आइ करि, नहिंतर तजौं पराण ।। इस दोहे में कबीर जीवात्मा की परब्रह्म से मिलने की आतुरता का बड़े भावपूर्ण शब्दों में चित्रण करते हैं। जीवात्मा रूपी सुंदरी परब्रह्म रूप पति को संबोधित कर कह रही है- हे सुजान-चतुर स्वामी ! मेरी प्रार्थना सुनें। आप शीघ्र आकर मुझसे मिलें। अन्यथा में अपने प्राण त्याग दूंगी।
१. कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ : १७०.
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