Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

View full book text
Previous | Next

Page 503
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन। णामस्वरूप जीवन-मरण के चक्र का अंत हो जाता है और सभी प्रकार के दु:खों का- बौद्ध-दर्शन शब्दावली में जरा-मरण का अंत हो जाता है, परंतु निर्वाण न्याय-वैशेषिकों के मोक्ष के समान ल एक निषेधात्मक स्थिति ही नहीं है। भगवान् बुद्ध ने अनेक अवसरों पर इसे परम कल्याण और आनंद की स्थिति बतलाया है। परंतु निर्वाण इतना अगाध है कि हम बुद्धि की चारों कोटियों [ भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते और न ही उसे भाषा में व्यक्त कर सकते हैं।' निर्वाण सकल दु:खों से मुक्त अवस्था का प्रतीक है। स्कन्धों के विनाश से उसकी प्राप्ति होती | वह तण्णा का पूर्ण विनाश, लौकिक वस्तुओं की इच्छाओं की शांति तथा अस्त कायों और क्तियों से पूर्ण मुक्ति का फल है। जो इच्छा, घृणा और मोह के विनाश से उद्भूत होता है। वह शांत, अनुभूत, सुख, नित्य और आसक्तिहीन अवस्था का सूचक है। निर्वाण की प्राप्ति के बाद भी शेष नहीं रहता। वह सर्वोच्च सत्य है, सर्वोच्च दर्शन है और सत्यपूर्ण अनुभव है। यह एक विशुद्ध अवस्था है, जहाँ चेतना यथार्थता के सन्मुख पहुँच जाती है। __ भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा- भिक्षुओं ! संसार अनादि है। अविद्या और 1 से संचालित होकर प्राणी भटकते फिरते हैं। उनके आदि-अंत का पता नहीं चलता। भवचक्र ड़ा प्राणी अनादि काल से बार-बार जन्मता-मरता आया है। संसार में बार-बार जन्म लेकर प्रिय योग और अप्रिय के संयोग के कारण रो-रो कर अपार आँसू बहाए हैं, दीर्घकाल तक दु:ख का, दु:ख का अनुभव किया है। अब तो सभी संस्कारों से निर्वेद प्राप्त करो, वैराग्य प्राप्त करो, मुक्ति करो। धम्मपद में कहा है जिघच्छा परमा रोगा, संखारा परमा दुखा। एवं अत्वा यथाभूतं, निब्बाणं परमं सुखं ।। रोगों की जड़ है जिघृक्षा- ग्रहण करने की इच्छा, तृष्णा। सारे दु:खों का मूल है- संस्कार । इस को जानकर तृष्णा और संस्कार के नाश से ही मनुष्य निर्वाण पा सकता है।' स चे नेरेसि अत्तानं, कंसो उपसतो यथा । एस पत्तोसि निब्बाणं, सारम्भो तेन विज्जति ।। यदि तुम टूटे हुए काँसे की तरह अपने को नीरव, निश्चल या कर्महीन बना लो, तो तुमने निर्वाण पा लिया। कारण, कम भी छूट गया। समीक्षा तथागत बुद्ध एक के बीच बड़े सुख से २ बनते हैं, जिनसे वे व्य संसार से विरक्त होक पहुँचते है कि समस्त निरोध किया जा सकर ___ इन चारों को आ उसका तत्त्व-ज्ञान प्रार उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हैं, जहाँ दु:ख ऐकान्ति हो जाता हैं। वह पर बौद्ध दर्शन की सकता। जैसा पहले | स्रोतापन्न, सकृदागामि हीनयान के पश्चा में अनेक ग्रन्थों की रर इसी अध्याय में महारा ऐसा प्रतीत होता यह तो मात्र निषेध ( व्याख्यात करना भी अरे उठता है। अत: ऐसा ने जो प्रयास किया, श जैसा पूर्व पृष्ठों तीय दर्शनों में मोक्षचिंतन एक तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ : ७५. रतीय धर्मों में मुक्ति-विचार, पृष्ठ : १६१. त्तनिकाय, १४. २. मपद, पद-२०३. १. धम्मपद, पद-१३४. 465

Loading...

Page Navigation
1 ... 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561