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सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
तरिक्ष में, वल शांति इ न पृथ्वी
ति प्राप्त
दोनों की मीमांसा
पंचस्कंध-जन्य दु:ख कभी सताते नहीं। उसके लिए जगत् के दुःखों का पर्यवसान हो जाता है।
महायान का आदर्श इससे भिन्न है। उसका आदर्श बोधिसत्व है, जो जगत् के उपकार में संलग्न होता है। उसके लिए निर्वाण पूर्ण आनंद की अवस्था है।
हीनयान में जहाँ निर्वाण निषेध रूप में हैं, वहाँ महायान में निर्वाण सत्तारूप होता है।
मिलिंदपण्हो (मिलिन्द-प्रश्न) में निर्वाण के संबंध में चर्चा आती है। महाराज मिलिन्द ने आचार्य नागसेन के समक्ष शंका उपस्थित करते हुए कहा कि निर्वाण में दुःख कुछ न कुछ अवश्य विद्यमान रहता है, क्योंकि निर्वाण की खोज करने वाले नाना प्रकार के संयमों से अपने शरीर, मन एवं इंद्रियों को तप्त किया करते हैं। संसार से संबंध तोड़ लेते हैं तथा इंद्रियों एवं मन की वासनाओं को मार डालते हैं, जिससे शरीर को और मन को कष्ट होता है। इस प्रकार निर्वाण दुःख से सना हुआ है। ___ नागसेन ने उसके उत्तर में कहा कि निर्वाण में दुःख का लेश भी नहीं रहता। वह तो सुख ही सुख है। राज्य की प्राप्ति हो जाने पर क्लेश नहीं रहते। उसी प्रकार तपस्या, ममत्व-त्याग, इंद्रिय-जय, जप आदि निर्वाण के उपायों में क्लेश है, किंतु स्वंय निर्वाण में क्लेश कहाँ? वह तो महासमुद्र के समान अनंत है। कमल के समान क्लेशों से अलिप्त है। जल के समान सभी क्लेशों के ताप को शांत कर देता है। काम-तृष्णा, भव-तृष्णा और विभव-तृष्णा की प्यास को बुझा देता है। वह आकाश के समान दस गुणों से युक्त होता है। न उत्पन्न होता है, न पुराना होता है, न मरता है और न आवागमन प्राप्त करता है। वह दुर्जेय, स्वच्छंद तथा अनंत है। सन्मार्ग पर चलकर संसार के सभी संस्कारों को अनित्य, दु:खमय तथा अनात्मरूप देखता हुआ कोई भी व्यक्ति प्रज्ञा से निर्वाण का साक्षात्कार कर सकता है।
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जिस प्रकार अग्नि ईंधन के अभाव में बझकर शांत हो जाती है, उसी प्रकार तष्णा के इंधन के अभाव में रागों की अग्नि बुझकर शांत हो जाती है। इसी अर्थ में निर्वाण ‘बुझना' है। इसमें तृष्णाओं का क्षय हो जाता है। निर्वाण-प्राप्त मनुष्य ने तृष्णाओं के सागर को पार कर लिया है। वह विचार में सभी विकल्पों के परे हो जाता है। उसके अनुभव का वाणी वर्णन नहीं कर सकती। बार-बार निर्वाण को संसार रूपी सागर में शरण-स्थान कहा गया है। वह अतुलनीय योग-क्षेम है।'
निर्वाण निषेधात्मक रूप से भव-तृष्णा का सभी रूपों में क्षय है। भव-तृष्णा के क्षय के
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१. भारतीय दर्शन, पृष्ठ : १६०, १६१ २. भारतीय दर्शन, पृष्ठ : ५७०. ३. भारतीय दर्शनों में मोक्षचिंतन एक तुलनात्मक अध्ययन, पृष्ठ : ७३.
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