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उपसंहार: उपलब्धि : निष्कर्ष
तुओं के
गवान् है। वे
पा की ना ही
ध्याय
ता है, पूनता दमय,
अपौद्गलिक, आध्यात्मिक प्रेरणा रूप भाषा द्वारा जन-जन को उद्बोधित करता है। दूसरे शब्दों में |जन-जन उनके स्वरूप पर चिंतन, अनुभवन कर अभिनव स्फूर्ति प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार सिद्ध भगवान् आत्म-जागरण के निमित्त के रूप में संसार के लिए प्रेरणा स्रोत हैं, वे | हमारे महान् उपकारी हैं। उन्हीं के आध्यात्मिक स्वरूप को समझकर हम अपने में सत्कर्म, चेतना की अनुभूति करते हैं, क्योंकि उनके स्वरूप में वह सब विद्यमान हैं, जिसके न होने से सांसारिक जन मौलिक उपलब्धियों और अभिसिद्धियों को प्राप्त करने के बावजूद अकिंचन एवं नगण्य बने रहते हैं। __मकड़ी के जाले की तरह सांसारिक प्रपंचों में उलझे हुए लोग सिद्ध भगवान् के स्वरूप में अनुप्राणित होकर अपने आप में एक ऐसी शक्ति का संचय करते हैं, जो उन्हें असत् से सत् की ओर, तमस् से ज्योति की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर प्रयाण करने का बल देती है। नि:संदेह सिद्ध भगवान् हमारे परमातिपरम उपकारी हैं। णमो सिद्धाणं' पद उनके प्रति हमारा नमन, प्रणमन है।। यह हमें उन उपकारी जैसा महान् पद प्राप्त करने का संदेश देता है।
णमोक्कार महामंत्र के परिशीलन से वह अद्भुत प्रभावकता अर्जित करता है। सिद्धों को नमन | सिद्ध स्वभावोत्प्रेरक के रूप में परमोपकारी होने के कारण नमनीय और वंदनीय हैं। वंदन और नमन से जीवन में विनय का संचार होता है। भावना में निर्मलता आती है। सद्गुण संचय की अंत:स्फूर्ति जागरित होती है।
___ 'विणय मूलो धम्मो'- के अनुसार जैन धर्म में विनय को धर्म का मूल कहा गया है । जिस प्रकार मूल से पौधा अंकुरित होता है, बड़ा होता है, विशाल वृक्ष का रूप ले लेता है, उसी प्रकार विनय द्वारा धर्म- दान, शील, तप, भावना, संयम, करुणा, मैत्री, विश्व-वात्सल्य जैसे आत्म-श्रेयस्कर मधुर फलों से परिपूर्ण पादप जैसा विस्तार पा लेता है । | सभी धर्मों में विनय का महत्त्व स्वीकार किया गया है। विनय की परिणति नमन या नमस्कार में होती है। सभी धर्मों के अपने-अपने नमस्कार-मंत्र हैं, जिनके अनुयायी उनका स्मरण, उच्चारण, जप आदि करते हैं। जैन धर्म में नमस्कार मंत्र को णमोक्कार मंत्र कहा जाता हैं। णमोक्कार नमस्कार का प्राकृत रूप है। जैन धर्म के मौलिक ग्रंथ- आगम प्राकृत में हैं। नमस्कार महामंत्र में पाँच महान् आत्माएं नमनीय हैं, जो अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु के रूप में स्वीकृत हैं। इनका प्रस्तुत शोध-ग्रंथ में विस्तार से विवेचन किया गया है। साधुत्व से प्रारंभ होकर सिद्धत्व के आदर्शों पर इन महापुरुषों की शृंखला टिकी हुई है। सिद्धत्व इस शंखला या परंपरा का सर्वोत्कृष्ट, सर्वोत्तम रूप है। साधु, उपाध्याय, आचार्य तथा अरिहंत- इन सबका अंतिम प्राप्य सिद्धत्व ही है।
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