Book Title: Namo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Author(s): Dharmsheelashreeji
Publisher: Ujjwal Dharm Trust

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Page 512
________________ णमो सिद्धाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन हैं । वे निर्विकार, निर्मल, परमविशुद्ध चिन्मय एवं सुख अवस्था अधिगत कर लेते हैं तथा मुमुक्षुओं के लिए सर्वदा, सर्वथा प्रेरणा स्रोत होते हैं । सिद्धों का परमोपकार णमोकार मंत्र में पंच परमेष्ठी पदों के अंतर्गत परम प्राप्य, परम साध्य के रूप में सिद्ध भगवान् समवस्थित हैं । वे सर्वोपरि इसलिए हैं कि शुद्धात्मभाव के अतिरिक्त उनमें और कुछ भी नहीं है । वे परम सिद्धावस्था में विद्यमान हैं । आत्मा की अशुद्धावस्था ही दुःखों का हेतु है। वही विविध कर्मावरणों के रूप में आत्मा की अमल, धवल शक्तियों को आवृत्त करती है। इन आवरण करने वाले कर्म-पुंजों को उच्छिन्न करना ही आत्मा का लक्ष्य है । सिद्ध-पद के अतिरिक्त चारों पदों में कर्मों का यत्किंचित् संश्लेष रहता है आचार्य, उपाध्याय और साधु साधना के यात्रा क्रम के मध्यवर्ती विश्राम हैं। कर्मों के उच्छेद की प्रक्रिया चलती रहती है। जब तक कर्मों का स्वल्पतम भी संश्लेष रहता है, तब तक परम शुद्धावस्था पाने में कुछ न्यूनता बनी रहती है । अरिहंत कर्मों के क्षय में रही हुई न्यूनता को शुद्ध ध्यान द्वारा अभाव में बदल देते हैं उसके परिणामस्वरूप आत्मा अपने परमानंदमय, शक्तिमय, शान्तिमय स्वरूप में अधिष्ठित हो जाती है । I कर्मों के उदयवश वासना और लालसा के कारण मनुष्य का मन सांसारिक भोगों की ओर आकृष्ट रहता है । वह आकर्षण ऐसा है, जिसमें क्षणिक माधुर्य है, किंतु परिणाम में विपुल दुःखात्मकता है। ज्यों ही एक भव्य पुरुष का ध्यान सिद्धत्व की ओर जाता है, त्यों ही उसके मन में होता है कि जिस मार्ग को अपनाने में वह सुख मान रहा है, वह तो उसकी भ्रांति है । सांसारिक भोगों भावोद्रेक के हेतुभूत जिस धन के मद पर मनुष्य फूला नहीं समाता, यह धन नश्वर है। जिस सम्मान, पद, प्रतिष्ठा और सत्ता को पाकर वह उन्मत्त रहता है, एक ऐसा समय आता है कि वह सब छूट जाते हैं। और वह सड़क पर आ जाता है, जो उसके लिए अत्यन्त अपमानजनक है, तब ज्यों ही सिद्ध भगवान् की परमानंदमयी स्थिति का वह चिंतन करता है तो उसे आंतरिक प्रेरणा प्राप्त होती है कि मैं भी यह पद प्राप्त कर सकूं । यद्यपि सिद्ध भगवान् अयोगी हैं। मानसिक, वाचिक, कायिक योगों से वे अतीत है। ये योग तो कर्म रूप हैं, जिनका वे सर्वथा क्षय कर चुके हैं। इसलिए वे किसी को उपदेश नहीं देते। वे तो अपने परमानंदमय स्वरूप में स्थित रहते हैं, किंतु उनका वह अलौकिक, शाश्वत, प्रशांत, स्वरूप एक प्रेरणापुंज का काम करता है। यद्यपि वे कुछ नहीं बोलते, किंतु उनका परम पावन व्यक्तित्व एक अद्भुत, 473

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