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| आत्मकर्तव्य-बोध
दत्तात्रेय आत्मा को संबोधित कर कहते हैं- हे आत्मन् ! तुम एक हो । समत्व - युक्त हो । | अतिशय शुद्ध तथा निर्विकार हो, ऐसा क्यों नहीं समझते ? तुम सदा अहर्निश उदित हो, अखंडित हो, यह कैसे नहीं मानते ?
सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
तुम आत्मा को सर्वत्र निरंतर एक समझो। मैं ध्याता हूँ, अन्य ध्येय हैं, इस प्रकार अखंड को | खंडित कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् आत्मा एक अखंड तत्त्व है। इसलिए उसकी शुद्धावस्था में मैं ध्यान करता हूँ। दूसरा ध्येय है, ऐसा भेद वहाँ नहीं होता। ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों मिलकर वहाँ एकरूप हो जाते हैं।
बाहर और भीतर सर्वत्र सर्वदा तुम शिवकल्याणस्वरूप- मंगलस्वरूप हो, फिर पिशाच की तरह भ्रांत होकर इधर-उधर क्यों दौड़ते हो? संयोग तथा वियोग तुम्हारे लिए है ही नहीं न तुम हो, न मैं हूँ, न जगत् है, वस्तुत: केवल आत्मा ही है ।
|परमात्म-भाव- अदेहावस्था
घड़े के टूट जाने पर घटाकाश महा आकाश में लीन हो जाता है । उसी प्रकार देह के सर्वथा विसर्जित हो जाने पर योगी आत्मा के शुद्ध स्वरूप में या परमात्म भाव में लीन हो जाता है। अर्थात् | वह जन्म मरण से सदा के लिए छूट जाता है।
'अंते मति सा गति'- देह छोड़ने के समय या मृत्युकाल में जो मति, चिंतन या भावना होती है, वही उस जीव की गति होती है। यह जो कहा गया है, वह उनके संबंध में हैं, जो कर्म से जुड़े | हुए हैं, किंतु जो ज्ञानियों के साथ जुड़े हुए हैं, उनके संबंध में यह लागू नहीं होता ।
कर्म-युक्त
'जनों की जो गति होती है, उसे वाणी द्वारा कहा जा सकता। वह इंद्रिय विषय रूप है, किंतु ज्ञान-योग की आराधना करने वाले महानुभावों की गति संसार से रहित है । जन्म-मरण रूप आवागमन से विवर्जित होती है । इसलिए वह शब्दों द्वारा नहीं कही जा सकती ।
योगियों का यह मार्ग कल्पित- कल्पना मात्र नहीं है । इसे समझकर जिनके विकल्पों का परिवर्जन हो गया उनको स्वयं ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।
योगी चाहे तीर्थ स्थान में या किसी अंत्यज के घर में मरण को प्राप्त करे, किन्तु वह फिर कभी गर्भ में नहीं आता । वह तो ब्रह्म में लीन हो जाता है ।
२. अवधूत गीता श्लोक-११-१४, पृष्ठ १५, १६.
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