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सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
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लोक में अविद्या का और उसके कार्य जीव-भाव का अनादित्व माना जाता है, किंतु जागरित हो जाने पर जैसे संपूर्ण स्वप्न-प्रपंच समूल नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के उदित हो जाने पर अविद्या-जनित जीव-भाव का नाश हो जाता है।
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ब्रह्मसाक्षात्कार का प्रशस्त पथ
ब्रह्मसाक्षात्कार के पथ पर गतिशील साधक को क्रिया, चिंता और वासना का त्याग करना परम आवश्यक है। इस विषय को स्पष्ट करते हुए विवेक चूडामणि के रचनाकार लिखते हैं कि अहंकार रूपी शत्रु का निग्रह कर, पुन: विषय-चिंतन द्वारा उसे उत्थित होने का अवसर कदापि नहीं देना चाहिए , क्योंकि जिस प्रकार सूखा हुआ जंबीर का वृक्ष जल द्वारा सिंचित किए जाने पर जीवित हो जाता है, उसी प्रकार विषय-चिंतन से अहंकार उद्दीप्त हो जाता है।
जो पुरुष देह में आत्म-बुद्धि रखता है वही कामी- कामना युक्त होता है। जो विलक्षण हैजो देह में आत्म-बुद्धि नहीं रखता, वह कामयिता- कामयुक्त कैसे हो सकता है?
भेद-प्रसक्ति के कारण विषय-चिंतन में संलग्न रहना भी संसार-बंधन का मुख्य कारण है।
कार्य के प्रवर्धन से- बढ़ने से उसके बीज की वृद्धि परिदृष्ट होती है तथा कार्य का नाश हो जाने | से बीज भी नष्ट हो जाता है। इसलिए कार्य का निरोध- नाश कर देना चाहिए।
वासना की वृद्धि से काम की वृद्धि होती है तथा काम के बढ़ने से वासना और बढ़ती है। इस प्रकार मनुष्य का संसार सर्वथा निवृत्त नहीं हो पाता, छूट नहीं पाता। अत: संसार के बंधन की विच्छित्ति के लिए- काटने के लिए यति को चाहिए कि वह इन दोनों का नाश करे।
चिंता और क्रिया इन दोनों से ही वासना की वृद्धि होती है। इन दोनों से प्रवर्धमान वासना आत्मा के लिए संसृति रूप बंधन उत्पन्न करती है। इन तीनों के क्षय का उपाय सदैव समस्त अवस्थाओं में सर्वदा, सर्वत्र, सब ओर, सबको ब्रह्म मात्र देखना है। इस सद्भाव ब्रह्मरूप वासना के दृढ़ हो जाने पर इन तीनों का क्षय हो जाता है। आत्मनिष्ठा एवं विमुक्ति
जो समस्त स्थावर और जंगम पदार्थों के भीतर और बाहर अपने को ज्ञान स्वरूप से उनका आधारभूत देखता है, समस्त उपाधियों का परित्याग कर अखंड एवं पूर्ण रूप से अवस्थित रहता है, वही मुक्त है। संसार बंधन से सर्वथा विमुक्त होने का हेतु सर्वोत्तम भाव है। उससे बढ़ कर और कोई
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१. विवेक चूडामणि, श्लोक-१९७, १९८, २००.
२. विवेक चूड़ामणि, श्लोक-३११, ३१७.
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