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णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
सारा लोक उनके आत्म-प्रदेशों से परिव्याप्त हो जाता हैं । फिर वे नाम आदि कर्मों को के समान बनाकर उलटे क्रम से अपने आत्म-प्रदेशों का संहरण करते हैं। पाँचवें समय में वे लोक आयुष्य कर्म | के बीच के अंतरों में फैले हुए आत्म-प्रदेशों को खींचते हैं। छठे समय में दक्षिण एवं उत्तर दिशाओं में विस्तीर्ण आत्म- प्रदेशों को संहृत करते हैं। सातवें समय में पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं में फैले अपने आत्म-प्रदेशों को वापस खींचते हैं। आठवें समय में समस्त आत्मप्रदेशों को पहले की तरह हुए स्व शरीर-व्यापी बना लेते हैं । इस प्रकार समुद्घात की क्रिया या विधि निष्पन्न होती है ।
अनुचिन्तन
समुद्घात की प्रक्रिया जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के प्रदेशों में संकुचित होने और विस्तीर्ण होने की विलक्षण क्षमता है । जैसा अवकाश प्राप्त होता है, तदनुरूप आत्म- प्रदेश संकुचित हो जाते हैं या विस्तीर्ण हो जाते हैं। उदाहरणार्थ एक हाथी के अगले जन्म में चींटी के रूप में उत्पन्न होने का आयुष्य बंधा हो तो जो आत्म प्रदेश हाथी की देह में सर्वत्र व्याप्त थे, वे सारे चींटी की देह में संकुचित होकर व्याप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार एक कीटाणु के यदि
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वृषभ या मेष का आयुष्य बंधा हो तो उसके आत्म प्रदेश जो उसकी देह में संकुचित या संकीर्ण रूप में व्याप्त थे, वे वृषभ या मेष की देह में विस्तार के साथ फैल जाते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आत्म- प्रदेश अमूर्त होते हैं।
योगों का सर्वथा निरोध
समुद्घात करने के पश्चात् आध्यात्मिक श्री विभूति या वैभव से संपन्न तथा अचिंत्य - जिसके संबंध में सोचा तक नहीं जा सकता ऐसे अपरिमित वीर्य आत्मपराक्रम से युक्त योमी यादर काय - योग का अवलंबन कर बादर वचन- योग और बादर मनोयोग का शीघ्रता से निरोध करते हैं ।
पुनः सूक्ष्म काय-योग में स्थित होकर बादर काय-योग को रोकते हैं, क्योंकि बादर काय-योग को रोके बिना सूक्ष्म काय योग का निरोध करना संभव नहीं होता ।
तत्पश्चात् सूक्ष्म काय-योग का अवलंबन कर सूक्ष्म मनो-योग और सूक्ष्म वचन - योग का निरोध करता है। पुनश्च सूक्ष्म काय योग द्वारा सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्ल-ध्यान सिद्ध होता है।
तदनन्तर अयोगी - योग रहित केवली प्रभु समुच्छिन्न- क्रिया- अप्रतिपाति नामक चतुर्थ शुक्ल
१. (क) योगशास्त्र, प्रकाश - ११, श्लोक - ५१, ५२.
(स) त्रिकालवर्ती महापुरुष, पृष्ठ १०५-१०८.
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