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| सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
है। इसका । ऋग्वेद, ड दो भेद
भन्न-भिन्न
[ ही सुंदर
जा रहा
कहा गया
बहुत हो जाऊँ। यह विचार कर उन्होंने तप किया अर्थात् जीवों के कर्मानुसार सृष्टि उत्पन्न करने के लिए संकल्प किया। संकल्प करके, यह जो कुछ भी देखने-सुनने में आता है, उस जड़-चेतनमय समस्त जगत् की रचना की।
विज्ञान ब्रह्म है। विज्ञान से ही ये भूत-प्राणी उत्पन्न होकर विज्ञान से ही जीते हैं। अंत में यहाँ | से प्रयाण कर विज्ञान में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।
ब्रह्म- परमेश्वर अचल, शाश्वत, एक स्वरूप, मन से भी अधिक तीव्र गति-युक्त ज्ञानस्वरूप है। उनको देव भी नहीं पा सके, नहीं जान सके। वे अन्य धावनशील- दौड़ने वाले को स्वयं स्थित रहते हुए भी अतिक्रांत कर जाते हैं। उनकी सत्ता या शक्ति से वायु आदि देव कार्यशील होते हैं। जल, वर्षा आदि संपादित करने में समर्थ होते हैं। वे चलते हैं, ऐसा प्रतीत होता है, पर वे नहीं चलते। वे दूर से भी दूर हैं, वे अत्यंत समीप हैं, वे समस्त जगत के भीतर परिपूर्ण हैं और वे इस समस्त जग बाहर भी हैं। _ “जो परमेश्वर या परब्रह्म को सर्वथा जानता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। वे शुभाशुभ कर्म-जनित सूक्ष्म देह तथा पाँचभौतिक अस्थि, शिरादि-युक्त स्थूल देह से रहित हैं, छिद्र रहित, दोष रहित हैं, दिव्य, शुद्ध सच्चिदानंदमय हैं, सर्वद्रष्टा हैं, सबके ज्ञाता हैं, सर्वाधिपति हैं, कर्म परवश नहीं हैं, स्वेच्छाधित हैं। सर्वकाल से सब प्राणियों के लिए उनके कर्मानुसार समस्त पदार्थों या वस्तुओं की यथायोग्य रचना करते हैं और विभाग करते हैं।"
__ मन सहित वाणी ब्रह्मानंद को न पाकर, न जानकर, जहाँ से लौट आती है, उस आनंद को जानने वाला ज्ञानी पुरुष कभी किसी से भयभीत नहीं होता, वह सर्वथा निर्भय हो जाता है। अर्थात् ब्रह्मानंद न वाणी का विषय है और न मन का विषय है, वह अव्याख्येय है।
केनोपनिषद् का प्रसंग है- शिष्य गुरु से पूछता है किसके द्वारा सत्तात्मक स्फूर्ति पाकर, संचालित होकर यह मन, यह अंत:करण अपने-अपने विषयों में पहुँचता है, समाविष्ट होता है ? किसके द्वारा नियुक्त होकर सर्वश्रेष्ठ प्राणवायु चलता है ? किसके द्वारा क्रियाशील हुई यह वाणी बोलती है ? वह कौन प्रसिद्ध देव है, जो चक्षुइंद्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय आदि को नियुक्त करता है, अपने-अपने विषयों के अनुभव में लगाता है।
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१. तैत्तिरीयोपनिषद्, वल्ली-२, अनुवाक-६ : ईशादि नौ उपनिषद्, पृष्ठ : ३७८. २. तैत्तिरीयोपनिषद्, वल्ली-३, अनुवाक-५ : ईशादि नौ उपनिषद् पृष्ठ : ४०२. ३. ईशावास्योपनिषद्, श्लोक-४, ५, पृष्ठ : ४, ५. ४. ईशावास्योपनिषद्, श्लोक-८, पृष्ठ : ८. ५. तैत्तिरीयोपनिषद्, वल्ली-२, अनुवाक-९ : ईशादि नौ उपनिषद्, पृष्ठ : ३९४.
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