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__ सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण ।
हैं। कुल, गोत्र, जाति, वर्ग, आश्रय, रूप- छ: भ्रम हैं। इन सबके योग से परम पुरुष ही जीव होता है, दूसरा नहीं। जो इस उपनिषद् का नित्य अध्ययन करता है, वह अग्निपूत, वायुपूत और आदित्यपूत होता है। वह रोगविहीन, श्रीसंपन्न, समृद्ध हो जाता है, विद्वान् हो जाता है, महापापों से विमुक्त हो जाता है। पवित्र हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि से वह बाधित नहीं होता। संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। इसी जन्म में वह परम-पद प्राप्त करता है।'
न-योग • आकार क प्रणव पर जो घात के
शक्ति , उसके
र में से
क्ष्म वह
हता है, ब्रह्मवेत्ता रूप में
३. स्वत्वानुभूति अद्वैत वेदांत में सत्य स्वरूप के अवबोध के संदर्भ में एक दृष्टांत द्वारा समझाया गया है
नीचानां वसतौ तदीयतनयः सार्धं चिरं वर्धितस्तज्जातीयमवैति राजतनयः स्वात्मानमप्यञ्जसा । संवादे महदादिभिः सह बसंस्तद्वद्भवेत्पूरुषः स्वात्मानं सुखदुःखजालकलितं मिथ्यैव धिमन्यते ।। दाता भोगकर: समग्रविभवो: य: शासिता दुष्कृतां, राजा स त्वमसीति रक्षितमुखाच्छ्रत्वा यथावत्स तु । राजीभूय जयार्थमेव यतते तद्वत्पुमान्बोधित:,
श्रुत्या तत्त्वमसीत्यपास्य दुरितं ब्रह्मैव संपद्यते।। एक राजपूत्र (शैशव से ही संयोगवश) नीच जनों की बस्ती में रहने लगा। उन्हीं के बच्चों के साथ बड़ा हुआ। राजपुत्र सहज ही अपने को उन्हीं की जाति का समझने लगा (जो सत्य नहीं था)। उसी प्रकार पुरुष (जीव) महत् आदि प्रकृति-जनित सांसारिक उपकरणों के बीच रहता हुआ, अपने को सुख-दुःख के जाल में फंसा हुआ, अधन्य मानता है, जो मिथ्या है। __"तुम तो वह राजा हो, जो दाता (बहुत कुछ देने में समर्थ), सुख-भोग का अधिकारी, अत्यंत वैभवशाली तथा दुष्टों का नियामक होता है।" जब वह राजपुत्र (वहाँ पहुँचे हुए) रक्षकों के मुख से यह सुनता है, अपने को राजा अनुभव करने लगता है, विजयार्थ यत्नशील होता है। उसी प्रकार पुरुष (आत्मा) जब 'तत्त्वमसि' (तत् त्वम् असि- तुम ब्रह्म हो) इस श्रुति (वेद) वाक्य द्वारा प्रतिबोधित होता है, तो वह अज्ञानमूलक असत् का परित्याग कर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
ट् भाव न ताप के हैं। द और
वृद्धि , उर्मियाँ
१. ऋग्वेदीय उपनिषद्, चतुर्थ-खंड, श्लोक-१ से १०, कल्याण (उपनिषद्-अंक) पृष्ठ : ६७७,६७८. २. सर्वदर्शन संग्रह : शांकर दर्शन, पृष्ठ : ८८७.
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