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MERNAMEANI
णमो सिध्दाण पद समीक्षात्मक परिशीलन
यहाँ चार प्रकार के योगियों का वर्णन किया जा रहा है
१. कुलयोगी
जो योगियों के कुल में उत्पन्न हुए हैं अर्थात् जन्म से ही जिन्हें योग सिद्ध है, जो प्रकृति से ही योगी धर्म का अनुसरण करते हैं, वे कुलयोगी कहे जाते हैं। कुलयोगियों की विशेषता
कुलयोगी सर्वत्र अद्वेषी होते हैं। वे किसी के भी प्रति द्वेष, अशुभ-भावना, ईर्ष्या, नहीं रखते। गुरु, सच्चे देव, ब्राह्मण-ब्रह्मवेत्ता, ज्ञानी पुरुष उन्हें प्रिय लगते हैं। उनके प्रति कुलयोगी के मन में बड़ा आदर, श्रद्धा और प्रीति होती है। कुलयोगी स्वभाव से ही बड़े दयावान् और विनयवान् होते हैं। वे प्रबुद्ध, तत्त्व ज्ञानी और जितेंद्रिय होते हैं।
२. गोत्रयोगी
जो आर्यक्षेत्र के भीतर भारतभूमि में जन्म लेते हैं, उन्हें भूमिभव्य कहा जाता है। वे ही गोत्रयोगी कहे जाते हैं, क्योंकि इस भूमि में योगाभ्यास के अनुरूप उत्तम स्थान, साधन, निमित्त तथा सामग्री सुलभतया प्राप्त होती है। साथ ही साथ यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि भूमि की भव्यता से ही साधना संपन्न नहीं होती, किंतु वह तभी संपन्न होती है, जब साधक अपनी भव्यता, पात्रता और योग्यता के बल पर योगाभ्यास करता है।
विशेष
जो योगी योगाभ्यास करते-करते अपना आयुष्य पूर्ण कर जाते हैं अर्थात् इस जन्म में अपनी योग साधना पूरी नहीं कर पाते, वे आगे कुलयोगी के रूप में उत्पन्न होते हैं। पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण उन्हें जन्म के साथ ही योग प्राप्त होता है। उनकी प्रकृति, वृत्ति योग-साधना के अनुरूप होती है। वे आत्मप्रेरित होते हैं। स्व-प्रेरित होकर ही योग साधना में संलग्न हो जाते हैं।
कुलयोगी शब्द अपने आप में बड़ा महत्त्व लिए हुए है। 'कुल' शब्द प्रशस्तता का द्योतक है। जैसे कुलवधू, कुलपत्र आदि शब्द वधू एवं पुत्र आदि की श्रेष्ठता या प्रशस्तता के अर्थ में हैं, उसी प्रकार कुलयोगी भी एक विशिष्ट प्रशस्ततापूर्ण अर्थ से युक्त है। जैसे कुलवधू उसे कहा जाता है, जो अपने पवित्र चारित्र, शालीनता, सदाचार, लज्जा एवं सौम्यतापूर्ण व्यवहार से कुल को अलंकृत करती है। कुलपुत्र वह होता है, जो अपने श्रेष्ठ, उदात्त व्यक्तित्व और कार्यकलाप से कुल को यशस्वी बनाता है।
| १. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-२११.
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