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णमो सिध्दाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन
तीसरे आठ पत्र-युक्त कमल की मुख में कल्पना करे। उसके प्रत्यक पत्र पर क्रमश: य, र, ल. व, श, ष, स, ह-इन आठ व्यजनो का चितन कर।
यह मातृका-ध्यान कहा जाता है। इसे करने से साधक श्रुत ज्ञान का पारगामी होता है। ये वर्ण अनादिकाल से स्वत: सिद्ध है। जो ध्याता विधिपूर्वक इनका ध्यान करता है, उसके स्वल्पकाल में ही अतीत, वर्तमान, भविष्य तथा जीवन-मृत्यु आदि से संबंधित ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। __इसके पश्चात् ग्रंथकार ने प्रणव, पंच परमेष्ठि मंत्र, पंच परमेष्ठि विद्या, पंच दशाक्षरी विद्या, सर्वज्ञाभ मंत्र, सप्तवर्ण मंत्र, हींकार-विद्या, वीं-विद्या, शशिकला इत्यादि के ध्यान का विवेचन किया है।
३. रूपस्थ-ध्यान
रूप या आकृति के आधार पर जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं। राग, द्वेष तथा मोह आदि आत्मविकारों से वर्जित, शांतिमय, कांतिमय, मनोरम- मन को प्रिय लगने वाले, समस्त उत्तम लक्षणों से शोभित, अन्य मतावलंबी जिसे नहीं जानते, ऐसी योग मुद्रा से अलंकृत, नेत्रों से अमन्द आनंद का विलक्षण निर्मल स्रोत प्रवाहित करने वाले जिनेश्वर देव के दिव्य एवं भव्य रूप का शुद्ध चित्त से ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
रूपस्थ ध्यान का परिणाम
जो योगी ध्यान का अभ्यास करने से तन्मयता प्राप्त कर लेता है, वह अपने आपको स्पष्टतया सर्वज्ञ के रूप में अवलोकित करने लगता है। उसका तात्पर्य यह है कि जब तक ध्याता का मन वीतराग भाव में परिणमन करता है, तब तक वह वीतराग भाव का ही अनुभव करता है।
उसकी चिंतन-धारा इस प्रकार गतिशील रहती है- 'जो सर्वज्ञ परमात्मा हैं, वास्तव में मैं नहीं हूँ', जिस योगी को इस प्रकार तन्मय हो जाने के कारण एकरूपता प्राप्त हो जाती है, वह योगी सर्वज्ञवत् माना जाता है।
जो योगी वीतराग प्रभु का ध्यान करता है, वह कर्मों और वासनाओं से छूट जाता है। इसके | प्रतिकूल जो सराग का ध्यान करता है, वह स्वयं रागयुक्त बनकर काम, क्रोध, हर्ष, विषाद आदि आत्मा को क्षुब्ध करने वाले विक्षोभों से युक्त हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि ध्यान का आलंबन जिस प्रकार का होता है, ध्याता के ध्यान की परिणति उसी रूप में होती है।
२. योगशास्त्र, प्रकाश-९, श्लोक-८-१०.
१. योगशास्त्र, प्रकाश-८, श्लोक-१-५. ३. योगशास्त्र, प्रकाश-९, श्लोक-११-१३.
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