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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
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२. एकत्व-श्रुत-अविचार
इसमें श्रुत के अनुसार अर्थ, शब्द आदि पर संक्रमण नहीं किया जाता, एक ही पर्याय विषयक ध्यान किया जाता है। इसलिए इसे एकत्व-श्रुत-अविचार कहा जाता है। अनुचिन्तन
शास्त्रीय मान्यता यह है कि प्रथम और द्वितीय शुक्ल-ध्यान साधारणतया उन मुनियों को होता है, जो पूर्वधर होते हैं, किंतु कभी-कभी पूर्वज्ञान के अभाव में अन्य ज्ञान के आधार से भी हो सकता है।
पहले में शब्द, अर्थ एवं योगों का उलट फेर या परिवर्तन होता रहता है, स्थिरता नहीं रहती, पर दूसरे में वैसा परिवर्तन नहीं होता, विशिष्ट रूप में स्थिरता आ जाती है।
इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम भेद में एक द्रव्य के भिन्न-भिन्न पर्यायों पर चिंतन होता है, किंतु दूसरे भेद में भिन्न-भिन्न पर्यायों पर चिंतन नहीं होता, एक ही पर्याय पर चिंतन होता है।
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३. सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति
जब मुक्ति-गमन का समय समीप आ जाता है, सर्वज्ञ प्रभु तब मन-योग का, वचन-योग का तथा स्थूल-काय-योग का अवरोध कर लेते हैं। मात्र श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रिया ही अवशिष्ट रहती है। उसमें जो ध्यान सधता है, उसे सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति ध्यान कहा जाता है।
आर्थिक बेचार
४. समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाति
जिस समय सर्वज्ञ प्रभु को शैल या पर्वत की तरह परिणामों की निश्चलता प्राप्त होती है, जिसे शास्त्रों में शैलेशीकरण कहा जाता है, तब जो सिद्ध होता है, उसे समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपाति कहा जाता है।
शब्द
योग रहता
केवली के साथ ध्यान का संबंध
मन की स्थिरता या एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है, किंतु तृतीय एवं चतुर्थ शुक्ल-ध्यान के अवसर पर मन विद्यमान नहीं होता, ऐसी स्थिति में ध्याता को ध्यान कैसे सध सकता है?
इसका समाधान यह है कि मन तो नहीं होता, किंतु शरीर तो होता है। जिस प्रकार मन एक
१. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-७.
२. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-८.
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