________________
मुक्त कराने
कहते हैं ।
तलाए गए
'अर्थ',
उक्त ध्यान
युक्त है।
पद्मासन,
शब्दों का है । जिस ली होती
क्रिया में
बोध का उपक्रम
है। जहाँ क होता
ता है,
८.
जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
जो 'चारित्र मोहनीय' कर्म के क्षयोपशम से, आंशिक रूप से या संपूर्ण रूप से चारित्र संपन्न होते हैं। जो वैसे नहीं होते, उनमें यह केवल बीज मात्र रहता है, सिद्ध नहीं होता । व्यावहारिक दृष्टि से कुछ | विद्वानों ने बीज मात्र को योग कहा है।
1
योगविंशिका में आगे इन पाँचों भेदों की इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिर और सिद्धि- ये चार कोटियाँ बतलाई गई हैं। पहली कोटि में योग-साधना की उत्सुकता उत्पन्न होती है। दूसरी में योगाभ्यासी साधना में होता है । तीसरी में, वह स्थिर बनता है तथा चौथी में, वह सिद्धि पा लेता है । प्रवृत्त
समीक्षा
योगविंशिका में सिद्धि या सिद्धत्व तक पहुँचने का जो मार्ग बतलाया गया है, उसमें आसन, प और ध्यान का समावेश है। ध्यान की अंतिम कोटि वहाँ सिद्ध होती है, जहाँ वह आलंबन-शून्य बन जाता है। आत्मा ही ध्याता, ध्यान और ध्येयावस्था प्राप्त कर लेती है, जिसका अंतिम परिणाम अयोगावस्था, कर्मशून्यावस्था, शुद्धावस्था, परमावस्था या सिद्धावस्था है ।
1
यह यात्रा क्रम आसन से प्रारंभ होकर अनालंबन ध्यान में परिसमापन पाता है, जहाँ | अध्यात्मयोगी का लक्ष्य सफल हो जाता है। वह सिद्धि या सिद्धत्व, सर्वलोक पूज्यत्त्व और नमस्करणीयत्व प्राप्त कर लेता है। 'णमो सिद्धाणं पद वहाँ पर्य्यवसित हो जाता है ।
योगियों के भेद
योगदृष्टि समुच्चय में आचार्य हरिभद्र सूरि ने संस्कार, अभ्यास, अभिसिद्धि या उपलब्धि आदि के | आधार पर योगियों के भेद किए हैं, जो उनका अपना मौलिक चिंतन है। उन्होंने गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्र योगी तथा निप्पन्न योगी रूप में चार प्रकार के योगी बतलाए हैं। उन्होंने अपने ग्रंथ के | संबंध में कहा है कि मेरी इस रचना से उनमें से किसी का कोई उपकार सधे तो अच्छा हैं। मैंने अनेक योगशास्त्रों से सार ग्रहण कर, दृष्टियों के भेदों का विश्लेषण करते हुए, प्रस्तुत ग्रंथ को आत्मानुस्मृति, | आत्मस्वरूप का साक्षात्कार, आत्म-प्रगति का अनुसरण, आत्मलक्ष्य की ओर जागरूकता तथा आत्मपराक्रम के सतत अभ्युदय के लिए इस ग्रंथ की रचना की है।
वे पुनः लिखते हैं- कुलयोगी एवं प्रवृत्तचक्र- योगी ही इस ग्रंथ के अधिकारी हैं। सभी योगी अधिकारी नहीं है, क्योंकि गोत्रयोगियों में वैसी योग्यता नहीं होती एवं निष्पन्न-योगी वैसी योगसिद्धि प्राप्त कर चुकते हैं, जो इस ग्रंथ के अध्ययन, अनुशीलन तथा तदनुरूप योगाभ्यास से फलित होती है। अत एव गोत्रयोगी और निष्पन्न योगियों के लिए उसकी उपयोगिता नहीं है।"
१. योगविंशिका, गाया- ३.
२. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक-२०७-२०१
397