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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
दर्शन की भाषा में मोक्ष का विश्लेषण करते हुए उल्लेख हुआ हैं- “अनात्मभाव की शून्यता में नेपर्णता प्रकट होती है। पूर्णता अमात्र पद है। शून्यता सेतु है। पररूप से शून्यता तथा स्वरूप से पूर्णता पाप्त होने का द्वार दोनों भावों की अक्रमश: वाच्यता, अनिर्वचनीयता अथवा केवल स्वसंवेद्य है।"
"बद्धता और मुक्तता मन-आधारित है। अपने मन का गुरु, मन को बनाओगे- मन द्वारा अन्तःपर्यवेक्षण करोगे तो सत्यवस्तु का ज्ञान होगा। बन्धन और मुक्ति दोनों का कारण मन ही है। यदि मन शुद्ध हो जाए, परमात्मा में लग जाए तो मुक्ति सहज है।"२
"जिस की शरीरादि के प्रति परमाणुमात्र भी मूर्छा हो, वह यदि सर्वागम का धारी हो तो भी वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता।"
मोक्ष प्राप्त महापुरूष : उनका स्थान __मोक्ष या सिद्ध के विभिन्न पक्षों का विवेचन करने के अनंतर सूत्रकृतांग में मोक्ष प्राप्त पुरुषों की स्थिति या स्थान का अवबोध कराते हुए लिखा है - _ जो पुरुष शुद्ध- सर्वदोष-वर्जित, प्रतिपूर्ण- समग्र या निरपवाद तथा अनुपम धर्म का आख्यान करते हैं, वे सर्वश्रेष्ठ स्थान- सिद्ध-अवस्था को अधिगत करते हैं। ऐसा होने पर फिर उनके लिए जन्म की- संसार में उत्पन्न होने की बात ही कहाँ ? अर्थात् वे जन्म-मरण से सदा के लिए छूट जाते हैं। __इस गाथा में एक बड़ा रहस्य है। यहाँ धर्म-पालन करने की बात न कह कर धर्म का आख्यानप्ररूपणा करने की बात कही गई है। इसका सारांश यह है कि धर्म की प्ररूपणा करने के अधिकारी वे ही महापुरुष होते हैं, जिन्हें सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है। जो तेरहवें सयोग केवली गुणस्थानवर्ती होते हैं। कर्मक्षय द्वारा उस भूमिका तक पहुँच जाते हैं, जिसकी उत्तरवर्ती मंजिल- मुक्ति या सिद्धावस्था होती है। अर्थात् वे शुक्लध्यान की परमोत्कृष्टावस्था प्राप्त कर चौदहवें अयोग-केवली गुणस्थान में पहुँच जाते है। वहाँ समस्त योग-प्रवृत्तियाँ निरूद्ध हो जाती हैं, केवल विशुद्ध परमात्म-स्वरूप ही भासित होता है।'
वैसे मेधावी-महानज्ञानी पुरुष फिर क्यों कभी इस संसार में उत्पन्न हो ? अर्थात् उनका जन्म-उद्भव सदा के लिए मिट जाता है। वे सर्वज्ञ, तीर्थकर, गणधर आदि महापुरूष अप्रतिज-निदानवर्जित होते हैं, तथा लोक के अनुत्तर- सर्वश्रेष्ठ-नेत्र-पथदर्शक होते हैं।"
१. मंत्र भलो नवकार, पृष्ठ : ९१.
२. भागवत-सुधा, पृष्ठ : ६४. ३. आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम, पृष्ठ : ७०. ४. सूत्रकृतांग-सूत्र, प्रथम-श्रुतस्कंध, अध्ययन-१५, गाथा-१-१८, पृष्ठ : ४४७. ५. सूत्रकृतांग-सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध, अध्ययन १५, गाथा-१९,२०, पृष्ठ : ४४८.
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