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उत्तरवती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
नके वैभवकल-देह
का उनके न्य है, कभी
परम-पद वे संसारपर प्रदेश
ऐसी कोई उपमा दी
खोज की उपमेय
के सदृश
गुणों के समग्र समवाय का भी चिंतन किया जाए, सिद्ध भगवान् को उपमा देने हेतु उन पर विचार किया जाए तो भी सिद्ध भगवान् के गुणों के साथ उनके गुणों की कोई समानता या तुलना नहीं हो सकती। __ सिद्ध भगवान् के गुण पूर्वकाल में नहीं थे, यह बात नहीं है, अर्थात् पूर्व में भी आत्मशक्ति के रूप में थे, कर्माच्छन्न होने के कारण ज्ञात नहीं होते थे, क्योंकि असत् का, जो जिसमें नहीं है, उसका उत्पाद् या प्रादुर्भाव नहीं होता। जो जिसमें है, वही प्रकट होता है। आत्मा में मूलरूप से सिद्धत्व के गण विद्यमान हैं, जो साधना द्वारा प्रकट होते हैं। वे किसी विशेष प्रयत्न के परिणाम स्वरूप उत्पन्न नहीं हैं। वे स्वाभाविक हैं, अभूतपूर्व हैं।
सिद्धों का माहात्म्य- महत्ता, गरिमा वाणी द्वारा व्याख्यात नहीं की जा सकती। सिद्धों का ज्ञानात्मक वैभव अनंत है। वह सर्वज्ञों के ज्ञान का विषय है। त्रयोदश गुणस्थानवर्ती केवली भगवान् ही उनके गुणों को जानते हैं।
यहाँ इतनी और विशेष बात है, सर्वज्ञ देव सिद्धों के गुणों को जानते तो हैं, किंतु यदि वे उन गुणों का सम्यक् समाधान पूर्वक वर्णन करें तो वे भी उनका पार- अंत नहीं पा सकते, क्योंकि वचनों की संख्या स्वल्प है- सीमित है तथा गुणों की कोई सीमा या अंत नहीं है। ससीम, असीम को कैसे व्यक्त कर सकता है ?
यहाँ आचार्य शुभचन्द्र ने जो कहा है- उपनिषदों के ऋषि भी उसी बात को परब्रह्म, परमात्मा के संबंध में प्रतिपादित करते हैं। | सिद्ध परमेष्ठी तीनों लोकों के तिलक रूप हैं। मस्तक में तिलक का जो स्थान है, लोक में वैसा ही सिद्धों का सर्वोच्च, सर्वोत्तम स्थान है। वे समग्र विषयों से अतीत, निर्द्वन्द्व, अविनश्वर, इंद्रियातीत, आत्मस्वभावजनित, आनंदस्वरूप, निरुपम, अविच्छिन्न, ज्ञान एवं सुख रूप अमृत का पान करते हुए त्रैलोक्य के शिखर पर स्थिर हैं- विराजित हैं।
। अनंतवीर्य- अपरिमित आत्मशक्ति-युक्त, दर्शन, ज्ञान एवं सुखरूप अमूल्य रत्नों से अवकीर्णपरिव्याप्त, संसाररूप अंधकार को विध्वस्त कर सूर्य के समान सुशोभित सिद्ध भगवान् अपनी आत्मा से ही समुत्पन्न, अनंत, नित्य, उत्तम शिवसुखमय सुधा के सागर में सदैव निमग्न रहते हैं। वे विकल्प रहित हैं। उनकी महिमा, महत्त्व, गौरव, अप्रतिहत है- किसी के द्वारा व्याहत या बाधित नहीं है, वे त्रैलोक्य के मस्तक पर- शिखर पर सदैव निवास करते हैं।
जगत् में
ोता है।
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नहीं है,
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किया
क्ष के
12. ज्ञानार्णव, सर्ग-४२, श्लोक-७२-८५.
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