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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
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अतीन्द्रिय- विषयातीत, सांसारिक विषय भोगों से परिवर्जित, निरुपम- उपमा रहित, स्वभावजस्वभाव से निष्पन्न, अविच्छिन्न- विच्छेद-रहित, पारमार्थिक सुख प्राप्त है, उसे मोक्ष कहा जाता है। जहाँ आत्मा निर्मल- कर्म-मल-रहित, निष्कल- काय-रहित, शांत- निर्वेदमय, निष्पन्न- सिद्ध स्वरूप, परमशांत, कृतार्थ- कृतकृत्य सम्यक् ज्ञान स्वरूप हो जाती है, वह शिव या मोक्ष है।
धैर्यशील पुरुष इस अनंत प्रभावयुक्त मोक्षार्थ कार्य के निमित्त समस्त प्रकार के भमों को त्यागकर कर्म-बंध को विध्वस्त करने हेतु तपश्चरण स्वीकार करते हैं। अर्थात् परम-पद को प्राप्त करने के लिए मुमुक्षु जन संसार का परित्याग कर मुनि-पद अपनाते हैं, अंगीकार करते हैं।
यहाँ मोक्ष और मनि-पद का कार्य-कारण भाव संबंध है। मोक्ष कार्य है तथा मुनिपद-संयममय साधना-पथ उसका कारण है। कोई भी कार्य कारण के बिना सिद्ध नहीं होता।
आचार्य शुभचंद्र ने यहाँ चौथे श्लोक से नौवें श्लोक तक सिद्ध-पद का लक्षण और स्वरूप व्याख्यात किया है। दसवें श्लोक में मोक्ष-प्राप्ति के कारण, त्याग एवं संयममय जीवन की ओर संकेत किया है। ___ आगे मार्ग या साधना-पथ को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि सर्वज्ञ जिनेंद्र प्रभु ने सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को मुक्ति का मार्ग कहा है। इसलिए मुक्ति की इच्छा करने वाले इस मार्ग का अनुसरण करते हैं।'
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सिद्ध-पद की गरिमा
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- आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव में यथाप्रसंग शुद्ध परमात्मा के संदर्भ में विविध अपेक्षाओं से बड़े अन्तःस्पर्शी उद्गार प्रकट किए हैं। ज्ञानार्णव जहाँ योग-साधना का महान् ग्रंथ है, वहीं शब्द रचना के सौंदर्य के कारण एक उत्तम काव्य भी है। इसका सर्गों के रूप में विभाजन इस बात का सूचक है।
काव्य-शास्त्र के अनुसार जो सर्गों में रचित होता है, वह महाकाव्य कहा जाता है। आचार्य शुभचंद्र महायोगी होने के साथ-साथ उच्च कोटि के कवि भी थे।
एक स्थान पर उन्होंने लिखा है- सिद्ध भगवान् में क्षुधा, तृषा, श्रांतता- खिन्नता, मद- उन्माद, मूर्छा-आसक्ति तथा मत्सर- ईर्ष्या आदि भाव नहीं होते।
१. ज्ञानार्णव, सर्ग-३, श्लोक-६,७. ३. ज्ञानार्णव, सर्ग-३, श्लोक-११.
२. ज्ञानार्णव, सर्ग-३, श्लोक-१०.
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