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णमो सिध्दाणं पद समीक्षात्मक परिशीलन
ने योग-सूत्र में इसका उपयोग किया है। उनके अनुसार- 'योगश्चित्तवृत्ति निरोध:-" बाह्य विषयों में, सांसारकि पदार्थों में जाती हुई चित्तवृत्तियों को रोकना, नियंत्रित करना, वश में करना योग है।
यह योग शब्द भारत की प्राय: सभी साधना पद्धतियों में व्याप्त होता गया। भारत में लगभग छठी शताब्दी से साधना में एक ऐसा मोड़ आया, विभिन्न परंपराओं के साधक अपने-अपने सिद्धान्तानसार योग की पद्धति से अभ्यास में संलग्न होने लगे।
आचार्य हरिभद्र सूरि जैन जगत् के महान् विद्वान् थे। उन्होंने इस ओर विशेष रूप से चिंतन किया। वे वैदिक (ब्राह्मण) और श्रमण- इन दोनों परंपराओं के पंडित थे। जैन दीक्षा स्वीकार करने से पूर्व वे चितौड़ के राजपुरोहित थे। ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। याकिनी महत्तरा नामक एक जैन । साध्वी से वे प्रभावित हए तथा जैन धर्म की ओर उनके मन में इतना आकर्षण उत्पन्न हुआ कि उन्होंने जैन दीक्षा स्वीकार कर ली।
आचार्य हरिभद्र सूरि ने जैन साधना-पद्धति को अक्षुण्ण रखते हुए योग के सांचे में ढालने का विद्वत्तापूर्ण प्रयत्न किया। उन्होंने इस पर अपना मौलिक चिंतन दिया। इस प्रकार जैन साधना के क्षेत्र में जैन योग का प्रसार हुआ।
योगमूलक जैन साहित्य
आचार्य हरिभद्र ने जैन योग पर 'योगदष्टि समुच्चय' और 'योगबिंदु' नामक दो ग्रंथ संस्कृत में तथा 'योगशतक' और 'योगविंशिका' नामक दो ग्रंथ प्राकृत में लिखे। इन चार ग्रंथों में जैन योग पर विभिन्न अपेक्षाओं से विचार-मंथन किया गया है। आचार्य हरिभद्र का समय ७००-७७० ई. तक माना जाता है। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् बारहवी-तेरहवीं शताब्दी में आचार्य हेमचंद्र हुए , जो अपने युग के महान् विद्वान् थे। उन्होंने व्याकरण, कोष, काव्य, न्याय आदि विषयों पर अनेक ग्रंथ लिखे। वे 'कलिकालसर्वज्ञ' के विरुद से विभूषित थे।
गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंह तथा उसके बाद कुमारपाल द्वारा वे बहुत सम्मानित थे। उनकी प्रेरणा से कुमारपाल ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। कुमारपाल के निवेदन पर उन्होंने 'अध्यात्मउपनिषद्' या 'योगशास्त्र' की रचना की। इसमें भी जैन साधना का योग के रूप में प्रतिपादन है।
आचार्य हेमचंद्र के समय के आस-पास दिगंबर जैन-परंपरा में भी एक महान् विद्वान्, योग
१. योग सूत्र, प्रथमपाद, सूत्र-२. २. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, पृष्ठ : ५१३-५२६.
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