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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
निस्पृहता, ये बाधाएं योग- जो में अनेक
जब धर्म के प्रति इच्छा उत्पन्न होती है, तब साधक उस ओर प्रयत्नशील होता है। वह प्रयत्नशीलता धर्म की दिशा में साधक का एक उद्यम या योग है, किंतु इस भूमिका में इच्छा तो निरंतर रहती ही है, पर प्रमाद नहीं मिटता। जिस प्रकार की जागरूकता या अप्रमत्तता आनी चाहिए, वह आ नहीं पाती, इसलिए वह धर्मोन्मुखयोग विकल- अपरिपूर्ण या असंपूर्ण होता है।
किसी भी कार्य के होने में इच्छा की प्रबलता एक हेतु है, किंतु इच्छा के साथ-साथ वैसी ही प्रबल सावधानी जब तक नहीं आती, तब तक इच्छा तो बहुत रहती है, पर कार्य की दिशा में अपेक्षित गति नहीं होती, शिथिलता बनी रहती है, किंतु मानस में निरंतर यह आकांक्षा रहती है कि योग-साधना में आगे बढ़ा जाए। इच्छा की निरंतरता- सततता के कारण ही इसे 'इच्छा-योग' के नाम से अभिहित किया गया है।
तदनुरूप होता है। या उद्यम स्त्र-योग ग-सिद्धि
२. शास्त्र-योग
तीव्र इच्छा के परिणाम-स्वरूप यथाशक्ति, असावधानी तथा प्रमत्तता दूर होती है। श्रद्धा दृढ़ता प्राप्त करती है। बोध-ज्ञान तीव्र होता है। साधक शास्त्रों का अध्ययन करता है। उनमें बताए गए मार्गानुसार वह योग-मार्ग की आराधना करता है। उसका इस प्रकार का अविकल- संपूर्ण योग 'शास्त्र योग' कहलाता है।
नेती है। द्वारा मेरे ना हो।
कि धर्म
विशेष
इस श्लोक में साधना की अनेक भूमिकाएँ समाविष्ट हो जाती हैं । इच्छा जब निरंतर बनी रहती है, कभी मिटती नहीं तब स्वत: अंतरात्मा में पराक्रम उद्भासित होता है। पुरुषार्थ या प्रयत्न जागरित होता है, जिससे प्रमाद, असावधानी दूर होने लगती है। अवसाद मिटने लगता है। यह आत्म-विकास की उत्तम स्थिति है। जब प्रमाद मिटने लगता है तो श्रद्धा या विश्वास को बल मिलता है। शास्त्राध्ययन से धर्म-योग या धर्म-साधना का मार्ग अवगत होता है। उस पर चलने का साधक प्रयत्न करता है। उसके ज्ञान में भी उत्कृष्टता उत्पन्न होती है। शास्त्रों में जैसा कहा गया है, वह उसका पूर्णत: निर्वाह करने में उद्यत रहता है। वहाँ मुख्य आधार शास्त्र है। उनका अवलंबन लिए साधक चलता है।
योग के पहले भेद में जहाँ इच्छा की मुख्यता है, वहाँ दूसरे भेद में शास्त्रों के अनुसार इच्छा की पूर्ति होती है।
में धर्म
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-४.
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